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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 57
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शङ्कुमत्यतिजागतशाक्वरातिशाक्वरधार्त्यगर्भातिधृतिः सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    प्र॒तीच्यै॑ त्वा दि॒शे वरु॑णा॒याधि॑पतये॒ पृदा॑कवे रक्षि॒त्रेऽन्ना॒येषु॑मते। ए॒तं परि॑ दद्म॒स्तं नो॑ गोपाय॒तास्माक॒मैतोः॑। दि॒ष्टं नो॒ अत्र॑ ज॒रसे॒ नि ने॑षज्ज॒रा मृ॒त्यवे॒ परि॑ णो ददा॒त्वथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒तीच्यै॑ । त्वा॒ । दि॒शे । वरु॑णाय । अधि॑ऽपतये । पृदा॑कवे । र॒क्षि॒त्रे । अन्ना॑य । इषु॑ऽमते । ए॒तम् । परि॑। द॒द्म॒: । तम् । न॒: । गो॒पा॒य॒त॒ ।आ । अ॒स्माक॑म् । आऽए॑तो: । दि॒ष्टम् । न॒: । अत्र॑ । ज॒रसे॑ । नि । ने॒ष॒त् । ज॒रा । मृ॒त्यवे॑ । परि॑ । न॒:। द॒दा॒तु॒ । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीच्यै त्वा दिशे वरुणायाधिपतये पृदाकवे रक्षित्रेऽन्नायेषुमते। एतं परि दद्मस्तं नो गोपायतास्माकमैतोः। दिष्टं नो अत्र जरसे नि नेषज्जरा मृत्यवे परि णो ददात्वथ पक्वेन सह सं भवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीच्यै । त्वा । दिशे । वरुणाय । अधिऽपतये । पृदाकवे । रक्षित्रे । अन्नाय । इषुऽमते । एतम् । परि। दद्म: । तम् । न: । गोपायत ।आ । अस्माकम् । आऽएतो: । दिष्टम् । न: । अत्र । जरसे । नि । नेषत् । जरा । मृत्यवे । परि । न:। ददातु । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥३.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 57

    पदार्थ -

    १. प्रभु कहते हैं कि (एतं त्वा) = इस तुझको (प्रतीच्यै दिशे) = [प्रति अञ्च] वापस लौटने की दिशा के लिए अर्पित करते हैं-यह दिशा प्रत्याहार की दिशा है-इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करने की दिशा है। (वरुणाय अधिपतये) = इस दिशा का अधिपति वरुण है-विषयों से अपना निवारण करनेवाला। (पृदाकवे रक्षित्रे) = [पृ-दा-कु] पालन व पूर्ण के लिए सब अन्न को देनेवाली पृथिवी इस प्रत्याहार की रक्षिका है-यह अपने से दूर फेंके गये सब पदार्थों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। (अन्नाय इषुमते) = अन्न ही इस दिशा की प्रेरणा दे रहा है कि प्रत्यहार के अभाव में, हे मनुष्यो! तुममें मुझे खा सकने का सामर्थ्य भी न रहेगा। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ -

    दाक्षिण्य से ऐश्वर्य प्राप्त करके हमें बड़ा सावधान होने की आवश्यकता है। कहीं हम इस ऐश्वर्य के कारण विषयों का शिकार न हो जाएँ, अत: यह 'प्रतीची' हमें प्रत्याहार का पाठ पढ़ाती है। हम पढ़ेंगे तो वरुण:-श्रेष्ठ बनेंगे। यह भूमिमाता निरन्तर प्रत्याहार में लगी है। अन्न भी हमें प्रत्याहार की प्रेरणा देता हुआ कहता है कि प्रत्याहार के अभाव में 'तुम मुझे न खाओगे, मैं ही तुम्हें खा जाऊँगा ।

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