अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 19
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
वि॒श्वव्य॑चा घृ॒तपृ॑ष्ठो भवि॒ष्यन्त्सयो॑निर्लो॒कमुप॑ याह्ये॒तम्। व॒र्षवृ॑द्ध॒मुप॑ यच्छ॒ शूर्पं॒ तुषं॑ प॒लावा॒नप॒ तद्वि॑नक्तु ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्वऽव्य॑चा: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: । भ॒वि॒ष्यन् । सऽयो॑नि: । लो॒कम् । उप॑ । या॒हि॒ । ए॒तम् । व॒र्षऽवृ॑ध्दम् । उप॑ । य॒च्छ॒ । शूर्प॑म् । तुष॑म् । प॒लावा॑न्। अप॑ । तत् । वि॒न॒क्तु॒ ॥३.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वव्यचा घृतपृष्ठो भविष्यन्त्सयोनिर्लोकमुप याह्येतम्। वर्षवृद्धमुप यच्छ शूर्पं तुषं पलावानप तद्विनक्तु ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वऽव्यचा: । घृतऽपृष्ठ: । भविष्यन् । सऽयोनि: । लोकम् । उप । याहि । एतम् । वर्षऽवृध्दम् । उप । यच्छ । शूर्पम् । तुषम् । पलावान्। अप । तत् । विनक्तु ॥३.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 19
विषय - विश्वव्यचा:+घृतपृष्ठः
पदार्थ -
१. (विश्वव्यचा:) = सब गुणों व शक्तियों के विस्तारवाला तथा (घृतपृष्ठ:) = ज्ञानदीप्ति को अपने में सींचनेवाला (भविष्यन्) = होना चाहता हुआ तू (सयोनि:) = उस प्रभु के साथ समान गृहवाला होता हुआ, अर्थात् हृदय में प्रभु के साथ निवास करता हुआ (एतं लोकम् उपयाहि) = इस लोक को प्राप्त हो-प्रभुस्मरणपूर्वक संसार में विचरनेवाला। यह प्रभुस्मरण ही तुझे इस संसार में आसक्त होने से बचाकर सुरक्षित शक्तिवाला व दीप्त ज्ञानवाला बनाएगा। २. इसी उद्देश्य से तू (वर्षवृद्धम्) = वरणीय गुणों से [वृ वरणे] व वर्षों से बढ़े हुए [बड़ी उमरवाले अनुभवी] (शर्पम्) = छाज के समान इस पुरुष को (उपयच्छ) = अपने को दे डाल-इस पुरुष के प्रति अपना अर्पण कर जिससे जो कुछ (तुषम्) = भूसा है तथा (पलावान) = तिनके आदि हैं (तत्) = उसे (अपविनक्त) = वह दूर कर दे पृथक्क कर दे। वह वरणीय गुणोंवाला वृद्ध पुरुष तेरे अवगुणों को दूर करनेवाला हो।
भावार्थ -
यदि हम प्रभु-स्मरणपूर्वक इस संसार में विचरेंगे तो अनासक्ति के द्वारा हम सब शक्तियों के विस्तारवाले व दीस ज्ञानवाले बनेंगे। गुणी वृद्ध पुरुषों के सम्पर्क में अपने सभी दोषों को दूर करने में समर्थ होंगे।
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