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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 31
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    प्र य॑च्छ॒ पर्शुं॑ त्व॒रया ह॑रौ॒षमहिं॑सन्त॒ ओष॑धीर्दान्तु॒ पर्व॑न्। यासां॒ सोमः॒ परि॑ रा॒ज्यं ब॒भूवाम॑न्युता नो वी॒रुधो॑ भवन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । य॒च्छ॒ । पर्शु॑म् । त्व॒रय॑ । आ । ह॒र॒ । ओ॒षम् । अहिं॑सन्त: । ओष॑धी: । दा॒न्तु॒ । पर्व॑न् । यासा॑म् । सोम॑: । परि॑ । रा॒ज्य᳡म् । ब॒भूव॑ । अम॑न्युता: । न॒: । वी॒रुध॑: । भ॒व॒न्तु॒ ॥३.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यच्छ पर्शुं त्वरया हरौषमहिंसन्त ओषधीर्दान्तु पर्वन्। यासां सोमः परि राज्यं बभूवामन्युता नो वीरुधो भवन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । यच्छ । पर्शुम् । त्वरय । आ । हर । ओषम् । अहिंसन्त: । ओषधी: । दान्तु । पर्वन् । यासाम् । सोम: । परि । राज्यम् । बभूव । अमन्युता: । न: । वीरुध: । भवन्तु ॥३.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 31

    पदार्थ -

    १. (पशुम्) = परशु को-दराँती को (प्रयच्छ) = प्रकर्षण हाथ में काबू कर । (त्वरया) = शीघ्रता कर। ओषम् आहर-[ओषम् Sharp taste, Pungeney] तीखे स्वाद को दूर कर। ओषधियों को काटनेवाले लोग (ओषधी: अहिंसन्त:) = औषधियों को नष्ट न करते हुए (पर्वन् दान्तु) = पर्व [गाँठ] पर काटें। ओषधियों के मूल को नष्ट न होने देना आवश्यक है। २. चन्द्रमा ओषधियों में रस का सञ्चार करता है, इसी से वह ओषधीश कहलाता है। इसकी किरणों में अमृतरस होता है। उस रस से वह ओषधियों को रसयुक्त करता है, अत: कहते हैं कि (यासां राज्यम्) = जिस राज्य को (सोमः) = यह चन्द्र (परिबभूव) = व्यास करता है। जहाँ-जहाँ ओषधियाँ हैं, वे सब इस चन्द्र से ही रसान्वित की जाती हैं। ये (वीरुधः) = बेलें व वनस्पतियों (न:) = हमारे लिए (अमन्यता: भवन्तु) = क्रोध को दूर करनेवाली हों। चन्द्र के समान ही ये हमारे मनों को आहादमय वृत्तिवाला बनाएँ।

    भावार्थ -

    मनुष्य वानस्पतिक भोजन करनेवाले ही बनें। ये भोजन उन्हें क्रूरवृत्तिवाला न बनाकर कोमल वृत्तिवाला बनाएगा। ओषधियों के मूल को नष्ट न होने दें। उनके ओष [pungency] को दूर करने का प्रयत्न करें। अपरिपक्व फल में 'ओष' का सम्भव होता है।

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