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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    उत्त॑रं रा॒ष्ट्रं प्र॒जयो॑त्त॒राव॑द्दि॒शामुदी॑ची कृणवन्नो॒ अग्र॑म्। पाङ्क्तं॒ छन्दः॒ पुरु॑षो बभूव॒ विश्वै॑र्विश्वा॒ङ्गैः स॒ह सं भ॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्त॑रम् । रा॒ष्ट्रम् । प्र॒ऽजया॑ । उ॒त्त॒रऽव॑त् । दि॒शाम् । उदी॑ची । कृ॒ण॒व॒त् । न॒: । अग्र॑म् । पाङ्क्त॑म् । छन्द॑: । पुरु॑ष: । ब॒भू॒व॒ । विश्वै॑ । वि॒श्व॒ऽअ॒ङ्गै: । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥३.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तरं राष्ट्रं प्रजयोत्तरावद्दिशामुदीची कृणवन्नो अग्रम्। पाङ्क्तं छन्दः पुरुषो बभूव विश्वैर्विश्वाङ्गैः सह सं भवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्तरम् । राष्ट्रम् । प्रऽजया । उत्तरऽवत् । दिशाम् । उदीची । कृणवत् । न: । अग्रम् । पाङ्क्तम् । छन्द: । पुरुष: । बभूव । विश्वै । विश्वऽअङ्गै: । सह । सम् । भवेम ॥३.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 10

    पदार्थ -

    १. (उत्तरं राष्ट्रम्) = एक उत्कृष्ट राष्ट्र (प्रजया उत्तरावत्) = उत्तम प्रजा से अधिक उत्कर्षवाला बनता है। वस्तुत: राष्ट्र-व्यवस्था ठीक होने पर ही राष्ट्र में उत्तम सन्तान होते हैं और वे उत्तम सन्तान राष्ट्र के और अधिक उत्कर्ष का कारण बनते हैं। यह दिशाम् उदीची-दिशाओं में उत्तर दिशा [उत् अञ्च] हमें ऊपर उठने की प्रेरणा देती हुई (नः अग्रं कृण्वत्) = हमारी अग्रगति उन्नति का कारण बने । २. इस उत्कृष्ट राष्ट्र में, उत्तर दिशा से ऊपर उठने की प्रेरणा लेता हुआ (पुरुषः) = पुरुष (पक्तिं छन्दः) = पाँच रूपोंवाला [छन्द् Appearance, look, shape] (बभूव) = होता है। इसके शरीर का निर्माण करनेवाले 'पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश' रूप पाँचों भूत इसके अनुकूल होते हैं और परिणामत: यह स्वस्थ शरीरवाला होता है। इस शरीर में पञ्चधा विभक्त प्राण [प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान] ठीक कार्य करता है। प्राणशक्ति के ठीक होने से पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ भी अपना-अपना कार्य ठीक प्रकार से करती हैं और 'मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व हृदय' इन पाँच भागों में विभक्त अन्त:करण भी पवित्र बना रहता है। ये ही इस पक्ति पुरुष के पाँचरूप [छन्द] है। ऐसा होने पर (विश्वैः) = सब तथा (विश्वांगैः सह) = पूर्ण अंगों के साथ हम संभवेम-पुत्ररूप में जन्म लेनेवाले बनें। ('तद्धिजायाया: जायात्वं यदस्यां जायते पुनः') = अपनी जाया में पति ही पुत्ररूप से जन्म लेता है, अत: यदि उसके सब अंग ठीक होंगे तो सन्तान भी तदनुरूप ही होंगे। उत्तम सन्तानों से राष्ट्र उत्तम बनेगा।

    भावार्थ -

    उत्तर दिशा हमें उन्नति की प्रेरणा देती है। स्वयं अपने पाँचों रूपों को ठीक रखते हुए हम उत्कृष्ट प्रजा को जन्म दें, उससे हमारा राष्ट्र और अधिक उन्नत हो।

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