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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 53
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    व॒र्षं व॑नु॒ष्वापि॑ गच्छ दे॒वांस्त्व॒चो धू॒मं पर्युत्पा॑तयासि। वि॒श्वव्य॑चा घृ॒तपृ॑ष्ठो भवि॒ष्यन्त्सयो॑निर्लो॒कमुप॑ याह्ये॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒र्षम् । व॒नु॒ष्व॒ । अपि॑ । ग॒च्छ॒ । दे॒वान् । त्व॒च: । धू॒मम् । परि॑ । उत् । पा॒त॒या॒सि॒ । वि॒श्वऽव्य॑चा: । घृ॒तऽपृ॑ष्ठ: ।‍ भ॒वि॒ष्यन् । सऽयो॑नि: । लो॒कम् । उप॑ । या॒हि॒ । ए॒तम् ॥३.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वर्षं वनुष्वापि गच्छ देवांस्त्वचो धूमं पर्युत्पातयासि। विश्वव्यचा घृतपृष्ठो भविष्यन्त्सयोनिर्लोकमुप याह्येतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वर्षम् । वनुष्व । अपि । गच्छ । देवान् । त्वच: । धूमम् । परि । उत् । पातयासि । विश्वऽव्यचा: । घृतऽपृष्ठ: ।‍ भविष्यन् । सऽयोनि: । लोकम् । उप । याहि । एतम् ॥३.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 53

    पदार्थ -

    १. (वर्षम्) = [वृषु सेचने] शक्ति के शरीर में सेचन को (वनुष्व) = तू सेवित कर । शरीर में उत्पन्न शक्तिको शरीर में ही सिक्त करने के लिए यत्नशील हो और इसप्रकार (देवान् अपिगच्छ) = दिव्यगुणों की ओर गतिवाला हो। (त्वचः) = अपनी त्वचा से (धूमम्) = मलिनतारूप धूम को (पर्युत्पातयासि) = दूर फेंकनेवाला हो। शरीर में शक्ति के रक्षण से जहाँ मन दिव्यगुण सम्पन्न-बनेगा, वहाँ शरीर की त्वचा भी रोगों की निस्तेजस्विता से शून्य होकर चमक उठेगी २. (विश्वव्यचा:) = सब शक्तियों के विस्तारवाला, (घृतपृष्ठ:) = ज्ञानदीप्ति को अपने में सींचनेवाला (भविष्यन्) = होना चाहता हुआ तू (सयोनि:) = प्रभु के साथ एक घर में निवासवाला, अर्थात् हृदय में प्रभु के साथ स्थित हुआ-हुआ (एतं लोकम् उपयाहि) = इस लोक को प्राप्त हो-प्रभुस्मरणपूर्वक इस लोक में विचरनेवाला बन । यह प्रभुस्मरण तेरी सब क्रियाओं को पवित्र बनाएगा।

    भावार्थ -

    शरीर में ही वीर्यशक्ति के सेचन से मन में दिव्यगुणों की स्थिति होगी तथा शरीर में नीरोगता के कारण त्वचा चमक उठेगी। साथ ही प्रभुस्मरणपूर्वक सब क्रियाओं को करने पर मनुष्य अपनी शक्तियों का विस्तार करेगा और ज्ञानदीति से अपने को दीस कर पाएगा।

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