अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 37
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
उप॑ स्तृणीहि प्र॒थय॑ पु॒रस्ता॑द्घृ॒तेन॒ पात्र॑म॒भि घा॑रयै॒तत्। वा॒श्रेवो॒स्रा तरु॑णं स्तन॒स्युमि॒मं दे॑वासो अभि॒हिङ्कृ॑णोत ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । स्तृ॒णी॒हि॒ । प्र॒थय॑ । पु॒रस्ता॑त् । घृ॒तेन॑ । पात्र॑म् । अ॒भि । धा॒र॒य॒ । ए॒तत् । वा॒श्राऽइ॑व । उ॒स्रा । तरु॑णम् । स्त॒न॒स्युम्। इ॒मम् । दे॒वा॒स॒: । अ॒भि॒ऽहिङ्कृ॑णोत ॥३.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
उप स्तृणीहि प्रथय पुरस्ताद्घृतेन पात्रमभि घारयैतत्। वाश्रेवोस्रा तरुणं स्तनस्युमिमं देवासो अभिहिङ्कृणोत ॥
स्वर रहित पद पाठउप । स्तृणीहि । प्रथय । पुरस्तात् । घृतेन । पात्रम् । अभि । धारय । एतत् । वाश्राऽइव । उस्रा । तरुणम् । स्तनस्युम्। इमम् । देवास: । अभिऽहिङ्कृणोत ॥३.३७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 37
विषय - प्रभु की गोद में
पदार्थ -
१.हे साधक! तू (उपस्तृणीहि) = उस अमृत प्रभु को अपना उपस्तरण बना [अमृतोपस्तरण मसि]-प्रभु की गोद में स्थित हो। उस प्रभु को ही (पुरस्तात् प्रथय) = अपने सामने विस्तृत कर सदा प्रभुस्मरण करनेवाला बन-प्रभु से ओझल न हो। इस प्रकार (एतत् पात्रम्) = इस शरीररूप पात्र को घतेन ज्ञानदीप्ति के द्वारा (अभिधारय) = क्षरित मलोंवाला व दीप्तिवाला बना। २. हे (देवास:) = देववृत्ति के पुरुषो! इम (अभिहिकृणोत) = इस प्रभु के प्रति प्रेम से स्तुतिवचनों का इस प्रकार उच्चरण करो, (इव) = जैसेकि (वाश्रा उत्रा) = रंभाती हुई गौ (तरुणम्) = तरुण (स्तनस्युम्) = स्तन के दूध पीने की इच्छावाले बछड़े के प्रति शब्द करती है।
भावार्थ -
हम प्रभु की गोद में बैठे, सदा प्रभु का स्मरण करें, ज्ञान द्वारा शरीर को पवित्र व दीप्त बनाएँ। प्रभु के प्रति प्रेम से स्तोत्रों का उच्चारण करें।
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