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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 39
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - अनुष्टुब्गर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    यद्य॑ज्जा॒या पच॑ति॒ त्वत्परः॑परः॒ पति॑र्वा जाये॒ त्वत्ति॒रः। सं तत्सृ॑जेथां स॒ह वां॒ तद॑स्तु संपा॒दय॑न्तौ स॒ह लो॒कमेक॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्ऽय॑त् । जा॒या । पच॑ति । त्वत् । प॒र॒:ऽप॑र: । पति॑: । वा॒ । जा॒ये॒ । त्वत् । ति॒र: । सम् । तत् । सृ॒जे॒था॒म् । स॒ह । वा॒म् । तत् । अ॒स्तु॒ । स॒म्ऽपा॒दय॑न्तौ । स॒ह । लो॒कम् । एक॑म्॥३.३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्यज्जाया पचति त्वत्परःपरः पतिर्वा जाये त्वत्तिरः। सं तत्सृजेथां सह वां तदस्तु संपादयन्तौ सह लोकमेकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्ऽयत् । जाया । पचति । त्वत् । पर:ऽपर: । पति: । वा । जाये । त्वत् । तिर: । सम् । तत् । सृजेथाम् । सह । वाम् । तत् । अस्तु । सम्ऽपादयन्तौ । सह । लोकम् । एकम्॥३.३९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 39

    पदार्थ -

    १. हे गृहपते! (जाया) = तेरी पत्नी (यत् यत्) = जो-जो कुछ (त्वत् परः पचति) = मुझसे परे [अलग] पकाती है, (वा) = अथवा हे (जाये) = पत्नी! (पतिः त्वत् परः) [पचति] = पति तुझसे अलग पकाता है। (तिर:) = वह सब दूर हो जाए-[तिर: भू Disappear, vanish] तुम्हारे घर से वह सब तिरोहित हो जाए। (तत् संसृजेथाम्) = उस सबको आप दोनों मिलकर संसृष्ट करो। (वाम) = आप दोनों का (तत्) = वह खान-पान (सह अस्तु) = साथ-साथ हो। इस प्रकार ही आप (एकं लोकं सम्पादयन्तौ) = एक लोक का सम्पादन करते हुए होओगे। २. अलग-अलग खाते रहने से उस प्रेम की सृष्टि नहीं होती जोकि एक घर को स्वर्ग बनाने के लिए आवश्यक है। इसी दृष्टि से प्रभु ने अन्यत्र आदेश दिया है कि ('समानी प्रपा सह वो अन्नभागः') = तुम्हारा पीने का पानी अलग-अलग न हो-तुम्हारा अन्न का सेवन अलग-अलग न होकर साथ-साथ ही हो।

    भावार्थ -

    पति-पत्नी अलग-अलग चुपके से कुछ न खाकर घर में मिलकर ही खानेवाले हों। पाणिग्रहण के मन्त्रों में पति व्रत लेता है कि 'न स्तेयमग्रि मनसोदमुच्ये'-मैं अलग से कुछ न खाऊँगा-मन में ऐसा विचार ही न आने दूंगा। यही बात प्रेमवृद्धि द्वारा घर को स्वर्ग बनाती है।

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