अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
ताव॑द्वां॒ चक्षु॒स्तति॑ वी॒र्याणि॒ ताव॒त्तेज॑स्तति॒धा वाजि॑नानि। अ॒ग्निः शरी॑रं सचते य॒दैधो॑ऽधा प॒क्वान्मि॑थुना॒ सं भ॑वाथः ॥
स्वर सहित पद पाठताव॑त् । वा॒म् । चक्षु॑: । तति॑ । वी॒र्या᳡णि । ताव॑त् । तेज॑: । त॒ति॒ऽधा । वाजि॑नानि । अ॒ग्नि: । शरी॑रम् । स॒च॒ते॒ । य॒दा । एध॑: । अध॑ । प॒क्वात् । मि॒थु॒ना॒ । सम् । भ॒वा॒थ॒: ॥३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तावद्वां चक्षुस्तति वीर्याणि तावत्तेजस्ततिधा वाजिनानि। अग्निः शरीरं सचते यदैधोऽधा पक्वान्मिथुना सं भवाथः ॥
स्वर रहित पद पाठतावत् । वाम् । चक्षु: । तति । वीर्याणि । तावत् । तेज: । ततिऽधा । वाजिनानि । अग्नि: । शरीरम् । सचते । यदा । एध: । अध । पक्वात् । मिथुना । सम् । भवाथ: ॥३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
विषय - उतना 'ज्ञान, वीर्य, तेज व वाजिन [शक्ति]
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसर जितना-जितना [यावन्ती] पति-पत्नी ब्रह्मचर्याश्रम की भांति गृहस्थ में भी संयम से चलते हैं [यमराज्ये] (तावत्) = उतना ही (वाम्) = आप दोनों का (चक्षुः) = ज्ञान होता है, (तति वीर्याणि) = उतनी ही वीर्यशक्ति होती है। (तावत् तेजः) = उतनी ही आप तेजस्विता प्राप्त करते हो, (ततिधा) = उतने ही प्रकार के (वाजिनानि) = आपके बल होते हैं । २. ['अनिवै काम:' कौ० १९.२] परन्तु (यदा) = जब (अग्निः ) = कामाग्नि (शरीरं सचते) = शरीर में समवेत होती है, तब (एध:) = यह शरीर उसके लिए काष्ठ-सा हो जाता है। कामाग्नि शरीररूप काष्ठ को दग्ध कर देती है, अत: संयमपूर्वक जीवन बिताते हुए इस नियम का ध्यान रक्खो कि (अधा) = अब (पक्वात्) = परिपक्व वीर्य से मिथुना तुम दोनों स्त्री पुमान् (संभवाथ:) = मिलकर सन्तान को जन्म देनेवाले होओ। सन्तानोत्पत्ति के लिए ही परस्पर मेल इष्ट है, विलास के लिए नहीं। कामानि तो हमें दग्ध ही कर डालेगी। कामाग्रि से बचना नितान्त आवश्यक है।
भावार्थ -
[घ] जितना हमारे जीवन में संयम होता है उतना ही हमें 'ज्ञान, वीर्य, तेज व वाजिन [शक्ति]' प्राप्त होता है। [ङ] कामाग्नि हमें दग्ध कर देती है, अत: कामाग्नि का शिकार न होते हुए हम परिपक्व वीर्य से सन्तान को जन्म देनेवाले हों। सन्तानोत्पत्ति के लिए ही पति पत्नी का परस्पर सम्पर्क हो।
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