Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    ग्राहिं॑ पा॒प्मान॒मति॒ ताँ अ॑याम॒ तमो॒ व्यस्य॒ प्र व॑दासि व॒ल्गु। वा॑नस्प॒त्य उद्य॑तो॒ मा जि॑हिंसी॒र्मा त॑ण्डु॒लं वि श॑रीर्देव॒यन्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्राहि॑म् । पा॒प्मान॑म् । अति॑ । तान् । अ॒या॒म॒ । तम॑: । वि । अ॒स्य॒ । प्र । व॒दा॒सि॒ । व॒ल्गु । वा॒न॒स्प॒त्य: । उत्ऽय॑त् । मा । जि॒हिं॒सी॒: । मा । त॒ण्डु॒लम् । वि । श॒री॒: । दे॒व॒ऽयन्त॑म् ॥३.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्राहिं पाप्मानमति ताँ अयाम तमो व्यस्य प्र वदासि वल्गु। वानस्पत्य उद्यतो मा जिहिंसीर्मा तण्डुलं वि शरीर्देवयन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्राहिम् । पाप्मानम् । अति । तान् । अयाम । तम: । वि । अस्य । प्र । वदासि । वल्गु । वानस्पत्य: । उत्ऽयत् । मा । जिहिंसी: । मा । तण्डुलम् । वि । शरी: । देवऽयन्तम् ॥३.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 18

    पदार्थ -

    १. जीव प्रार्थना करता है कि (ग्राहिम्) = शरीर को जकड़ लेनेवाले गठिया आदि रोगों को तथा (पाप्मानम्) = पापवृत्ति को, (तान्) = उन सब अशुभों को (अति अयाम) = हम लौष जाएँ। प्रभु इस प्रार्थना का उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (तमः व्यस्य) = अन्धकार को दूर करके वल्गु (प्रवदासि) = तू सुन्दर शब्दों को ही बोलनेवाला बन। [ख] (वानस्पत्यः) = वनस्पतियों का ही सेवन करनेवाला तू सदा (उद्यत:) = कर्त्तव्यकर्मों के पालन में उद्यत रह । [ग] (मा जिहिंसी:) = हिंसा करनेवाला न बन। [घ] (देवयन्तम् तण्डुलम्) = तुझे देव बनाने की कामना करते हुए इस तण्डुल को-व्रीहि को (मा विशरी:) = शीर्ण मत कर, तेरे घर में यह तण्डुल सदा संचित रहे। यह तुझे देववृत्ति का बनानेवाला हो।

    भावार्थ -

    हम प्रभु के इन उपदेशों को न भूलें [क] ज्ञान की वृद्धि करते हुए हम सुन्दर शब्द बोलें [ख] शाकभोजी बनकर कर्तव्यकर्मों में लगे रहें। [ग] अहिंसावृत्तिवाले हों [घ] दिव्यता प्राप्त करानेवाले ब्रीहि आदि भोजनों का ही प्रयोग करें। ऐसा करने पर हम रोगों व पापों से बचे रहेंगे।

     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top