अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 13
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
यद्य॑त्कृ॒ष्णः श॑कु॒न एह ग॒त्वा त्सर॒न्विष॑क्तं॒ बिल॑ आस॒साद॑। यद्वा॑ दा॒स्या॒र्द्रह॑स्ता सम॒ङ्क्त उ॒लूख॑लं॒ मुस॑लं शुम्भतापः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्ऽय॑त् । कृ॒ष्ण: । श॒कु॒न: । आ । इ॒ह । ग॒त्वा । त्सर॑न् । विऽस॑क्तम् । बिले॑ । आ॒ऽस॒साद॑ । यत् । वा॒ । दा॒सी । आ॒र्द्रऽह॑स्ता । स॒म्ऽअ॒ङ्क्ते । उ॒लूख॑लम् । मुस॑लम् । शु॒म्भ॒त॒ । आ॒प॒: ॥३.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्यत्कृष्णः शकुन एह गत्वा त्सरन्विषक्तं बिल आससाद। यद्वा दास्यार्द्रहस्ता समङ्क्त उलूखलं मुसलं शुम्भतापः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्ऽयत् । कृष्ण: । शकुन: । आ । इह । गत्वा । त्सरन् । विऽसक्तम् । बिले । आऽससाद । यत् । वा । दासी । आर्द्रऽहस्ता । सम्ऽअङ्क्ते । उलूखलम् । मुसलम् । शुम्भत । आप: ॥३.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 13
विषय - शोधन [नीरोगता के लिए]
पदार्थ -
१. (यत् यत्) = जब तक (कृष्णः शकुनः) = यह कृष्ण वर्ण का पक्षी [कौवा] (इह) = यहाँ (आ गत्वा) = आकर (सरन्) = टेढ़ी चालें चलता हुआ (विषक्तम्) = जमकर बिले-किसी बिल में-आले आदि में (आससाद) = बैठ जाए (यत् वा) = अथवा जब (दासी) = घर में बर्तन आदि साफ़ करनेवाली कार्यकर्जी आर्द्रहस्ता कार्य करते समय उन्हीं गीले हाथों से (उलूखलं मुसलम्) = ऊखल व मूसल को (समङ्क्ते) = [ smear with] लिथेड़ देती है-अपवित्र कर देती है तब (आप:) = हे जलो! (शुम्भत) = उस स्थान को व ऊखल-मूसल को तुम शुद्ध कर दो।
भावार्थ -
घर में कौवा आदि पक्षी कुछ अपवित्र कर दें, अथवा कोई कार्यकी ऊखल मूसल आदि को मलिनता से लिप्त कर दे तो उसका जलों से सम्यक् शोधन कर लेना आवश्यक है, अन्यथा रोग आदि के फैलने की आशंका बढ़ जाती है।
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