अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 29
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
उद्यो॑धन्त्य॒भि व॑ल्गन्ति त॒प्ताः फेन॑मस्यन्ति बहु॒लांश्च॑ बि॒न्दून्। योषे॑व दृ॒ष्ट्वा पति॒मृत्वि॑यायै॒तैस्त॑ण्डु॒लैर्भ॑वता॒ समा॑पः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । यो॒ध॒न्ति॒ । अ॒भि । व॒ल्ग॒न्ति॒। त॒प्ता: । फेन॑म् । अ॒स्य॒न्ति॒ । ब॒हु॒लान् । च॒ । बि॒न्दून् । योषा॑ऽइव । दृ॒ष्ट्वा । पति॑म् । ऋत्वि॑जाय । ए॒तै: । त॒ण्डु॒लै: । भ॒व॒त॒ । सम् । आ॒प॒: ॥३.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्योधन्त्यभि वल्गन्ति तप्ताः फेनमस्यन्ति बहुलांश्च बिन्दून्। योषेव दृष्ट्वा पतिमृत्वियायैतैस्तण्डुलैर्भवता समापः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । योधन्ति । अभि । वल्गन्ति। तप्ता: । फेनम् । अस्यन्ति । बहुलान् । च । बिन्दून् । योषाऽइव । दृष्ट्वा । पतिम् । ऋत्विजाय । एतै: । तण्डुलै: । भवत । सम् । आप: ॥३.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 29
विषय - अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्
पदार्थ -
१. प्राकृतजन तो (उद्योधन्ति) = परस्पर युद्ध करने लगते हैं, (अभिवल्गन्ति) = एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं, (तप्ता:) = क्रोधसंतप्त हुए-हुए (फेनम् अस्यन्ति) = ओष्ठप्रान्तों से आग को छोड़ते हैं, (च) = और (बहुलान् बिन्दून्) = कितनी ही थूक [ष्ठीवन] की बून्हें उनके मुख से गिरती है, अर्थात् ये प्राकृतजन क्रोध में उन्मत्त-से हो जाते हैं और भला करनेवाले पर भी आक्रमण कर बैठते हैं। २. ऐसा होने पर भी हे (आप:) = आम पुरुषो! आप (ऐतैः तण्डुलै:) = [तदि विध्वंसे] विवंसकारी पुरुषों के साथ भी इस प्रकार प्रेम से (सम्भवत) = मेलवाले होओ-इन्हें भी इसप्रकार प्रेम से ज्ञान देनेवाले बनो (इव) = जैसेकि (योषा) = पत्नी (पतिं दृष्ट्वा) = पति को देखकर (ऋत्वियाय) = ऋतु धर्म के लिए मेलवाली होती है। हे आप्त पुरुषो! इन विध्वंसकों को भी आप इसीप्रकार प्रेम से ज्ञान दो।
भावार्थ -
प्राकृतजन क्रोध में आकर लड़ते हैं, एक-दूसरे पर आक्रमण करते हैं, क्रोधोन्मत्त होने पर इनके मुख से आग ब थूक भी गिरने लगती है। फिर भी आप्त संन्यासियों को इन्हें प्रेम से ज्ञान देना ही है। इन्हें अक्रोध से उन प्राकृतजनों के क्रोध को जीतना है।
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