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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 8
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    दक्षि॑णां॒ दिश॑म॒भि नक्ष॑माणौ प॒र्याव॑र्तेथाम॒भि पात्र॑मे॒तत्। तस्मि॑न्वां य॒मः पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः प॒क्वाय॒ शर्म॑ बहु॒लं नि य॑च्छात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दक्षि॑णाम् । दिश॑म् । अ॒भि । नक्ष॑माणौ । प॒रि॒ऽआव॑र्तेथाम् । अ॒भि । पात्र॑म् । ए॒तत् । तस्मि॑न् । वा॒म् । य॒म: । पि॒तृऽभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । प॒क्वाय॑ । शर्म॑ । ब॒हु॒लम् । नि । य॒च्छा॒त् ॥३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दक्षिणां दिशमभि नक्षमाणौ पर्यावर्तेथामभि पात्रमेतत्। तस्मिन्वां यमः पितृभिः संविदानः पक्वाय शर्म बहुलं नि यच्छात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दक्षिणाम् । दिशम् । अभि । नक्षमाणौ । परिऽआवर्तेथाम् । अभि । पात्रम् । एतत् । तस्मिन् । वाम् । यम: । पितृऽभि: । सम्ऽविदान: । पक्वाय । शर्म । बहुलम् । नि । यच्छात् ॥३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. अब (दक्षिणां दिशम् अभि) = दाक्षिण्य [नैपुण्य] की दिशा की ओर (नक्षमाणौ) = गति करते हुए तुम दोनों [पति-पत्नी] (एतत् पात्रम् अभि पर्यावर्तेथाम्) = इस रक्षक प्रभु की ओर फिर-फिर लौटते हुए (वाम्) = तुम दोनों को (यमः) = वह सर्वनियन्ता प्रभु   (पितृभिः संविदान:) = पितरों के द्वारा संज्ञान को प्राप्त कराता हुआ (पक्वाय) = ज्ञान में परिपक्व हुए-हुए के लिए (बहुलं शर्म नियच्छात्) = बहुत ही सुख प्राप्त कराए। प्रभु उपासक को ज्ञान प्राप्त कराने का प्रबन्ध करते हैं। जो भी ज्ञान प्राप्त करता है, उसे वे सखी करते हैं।

    भावार्थ -

    हम दाक्षिण्य को प्राप्त करने पर प्रभु को न भूलें। अन्यथा इस दाक्षिण्य से प्राप्त ऐश्वर्य हमारे पतन का कारण बन जाएगा। प्रभु का स्मरण होने पर प्रभु हमें पितरों द्वारा ज्ञान प्राप्त कराते हैं और ज्ञान परिपक्व व्यक्ति के लिए वे सुख देनेवाले होते हैं।

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