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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 40
    सूक्त - यमः देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त

    याव॑न्तो अ॒स्याः पृ॑थि॒वीं सच॑न्ते अ॒स्मत्पु॒त्राः परि॒ ये सं॑बभू॒वुः। सर्वां॒स्ताँ उप॒ पात्रे॑ ह्वयेथां॒ नाभिं॑ जाना॒नाः शिश॑वः स॒माया॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑न्त: । अ॒स्या: । पृ॒थि॒वीम् । सच॑न्ते । अ॒स्मत् । पु॒त्रा: । परि॑ । ये । स॒म्ऽब॒भू॒वु: । सर्वा॒न् । तान् । उप॑ । पात्रे॑ । ह्व॒ये॒था॒म् । नाभि॑म् । जा॒ना॒ना: । शिश॑व: । स॒म्ऽआया॑न् ॥३.४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावन्तो अस्याः पृथिवीं सचन्ते अस्मत्पुत्राः परि ये संबभूवुः। सर्वांस्ताँ उप पात्रे ह्वयेथां नाभिं जानानाः शिशवः समायान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावन्त: । अस्या: । पृथिवीम् । सचन्ते । अस्मत् । पुत्रा: । परि । ये । सम्ऽबभूवु: । सर्वान् । तान् । उप । पात्रे । ह्वयेथाम् । नाभिम् । जानाना: । शिशव: । सम्ऽआयान् ॥३.४०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 40

    पदार्थ -

    १. (यावन्त:) = जितने भी (अस्या:) = इस मेरी पत्नी में (अस्मत् पुत्रा:) = मेरे पुत्र (पृथिवीं सचन्ते) = इस पृथिवी के साथ सम्बद्ध हैं, अर्थात जीवित हैं और (ये) = जो (परि संबभव:) = चारों ओर-इधर उधर भिन्न-भिन्न स्थानों में रह रहे हैं, हे दम्पती! तुम (तान् सर्वान्) = उन सबको (पात्रे उपह्वयेथाम्) = पात्र में पुकारो, अर्थात् समय-समय पर भोजन के लिए एकत्र करो। (नाभिम्) = बन्धुत्व को (जानाना:) = जानते हुए (शिशवः समायान्) = शिशु वहाँ एक स्थान पर आएँ। २. माता-पिता से सन्तान जन्म लेते हैं। बड़े होकर वे भिन्न-भिन्न स्थानों में कार्य करने लगते हैं। उनका भी परिवार बनता है। माता पिता को चाहिए कि कभी-कभी सन्तानों को परिवार समेत भोजन पर बुलाएँ। उन सबके छोटे छोटे बालक भी बन्धुत्व को अनुभव करते हुए वहाँ एकत्र होंगे। वस्तुतः एकत्र होना उन्हें एक दूसरे के समीप लाएगा।

    भावार्थ -

    माता-पिता समय-समय पर सब सन्तानों को सपरिवार भोजन पर बुलाते रहें, ताकि सब भाइयों का व उनके सन्तानों का परस्पर बन्धुत्व [स्मरण] बना रहे। परस्पर के बन्धुत्व को वे भूल ही न जाएँ।

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