अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
प्र॒तीची॑ दि॒शामि॒यमिद्वरं॒ यस्यां॒ सोमो॑ अधि॒पा मृ॑डि॒ता च॑। तस्यां॑ श्रयेथां सु॒कृतः॑ सचेथा॒मधा॑ प॒क्वान्मि॑थुना॒ सं भ॑वाथः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒तीची॑ । दि॒शाम् । इ॒यम् । इत् । वर॑म् । यस्या॑म् । सोम॑: । अ॒धि॒ऽपा: । मृ॒डि॒ता । च॒ । तस्या॑म् । श्र॒ये॒था॒म् । सु॒ऽकृत॑: । स॒चे॒था॒म् । अध॑ । प॒क्वात् । मि॒थु॒ना॒ । सम् । भ॒वा॒थ॒: ॥३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रतीची दिशामियमिद्वरं यस्यां सोमो अधिपा मृडिता च। तस्यां श्रयेथां सुकृतः सचेथामधा पक्वान्मिथुना सं भवाथः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रतीची । दिशाम् । इयम् । इत् । वरम् । यस्याम् । सोम: । अधिऽपा: । मृडिता । च । तस्याम् । श्रयेथाम् । सुऽकृत: । सचेथाम् । अध । पक्वात् । मिथुना । सम् । भवाथ: ॥३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
विषय - प्रत्याहार की श्रेष्ठ दिशा
पदार्थ -
१. (इयं प्रतीची) = [प्रति अञ्च] यह प्रत्याहार-इन्द्रियों को विषयों से वापस लाने की दिशा ही (दिशम् इत् वरम्) = दिशाओं में निश्चय से श्रेष्ठ है। जीवन में सर्वाधिक महत्त्व इस बात का है कि हम इन्द्रियों को विषयों में न फंसने दें। यह प्रत्याहार की दिशा वह है (यस्याम्) = जिसमें (सोमः) = वे शान्त प्रभु (अधिपा:) = रक्षक हैं, (च मृडिता) = और सुखी करनेवाले हैं। प्रभु का रक्षण व अनुग्रह [आनन्द] उसी को प्राप्त होता है जो प्रत्याहार का पाठ पढ़ता है। २. अत: हे दम्पती! (तस्यां भयेथाम्) = उस प्रत्याहार की दिशा में ही आश्रय करो, (सुक्रतः सचेथाम्) = पुण्यकर्मा लोगों से ही मेल करो-उन्हीं के संग में उठो-बैठो। (अधा) = अब (पक्वात्) = वीर्य का ठीक परिपाक होने से ही मिथुना (संभवाथ:) = मिलकर सन्तान को जन्म देनेवाले बनो। तुम विलास का शिकार न होकर इसे एक पवित्र कार्य जानो। इस पवित्रता के लिए प्रत्याहार की कितनी आवश्यकता है?
भावार्थ -
ऐश्वर्य को प्राप्त करके भी इन्द्रियों को विषयासक्त न होने देना-उन्हें विषय व्यावृत्त करना ही पवित्रतम कार्य है। ऐसा होने पर ही प्रभु का रक्षण व अनुग्रह प्राप्त होता है। पति-पत्नी जितेन्द्रिय बनकर सन्तानोत्पत्ति के लिए ही परस्पर मेलवाले हों।
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