अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
सूक्त - यमः
देवता - स्वर्गः, ओदनः, अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वर्गौदन सूक्त
आप॑स्पुत्रासो अ॒भि सं वि॑शध्वमि॒मं जी॒वं जी॑वधन्याः स॒मेत्य॑। तासां॑ भजध्वम॒मृतं॒ यमा॒हुर्यमो॑द॒नं पच॑ति वां॒ जनि॑त्री ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑:। पु॒त्रा॒स॒: । अ॒भि । सम् । वि॒श॒ध्व॒म् । इ॒मम् । जी॒वम् । जी॒व॒ऽध॒न्या॒: स॒म्ऽएत्य॑ । तासा॑म् । भ॒ज॒ध्व॒म् । अ॒मृत॑म् । यम् । आ॒हु: । यम् । ओ॒द॒नम् । पच॑ति । वा॒म् । जनि॑त्री ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
आपस्पुत्रासो अभि सं विशध्वमिमं जीवं जीवधन्याः समेत्य। तासां भजध्वममृतं यमाहुर्यमोदनं पचति वां जनित्री ॥
स्वर रहित पद पाठआप:। पुत्रास: । अभि । सम् । विशध्वम् । इमम् । जीवम् । जीवऽधन्या: सम्ऽएत्य । तासाम् । भजध्वम् । अमृतम् । यम् । आहु: । यम् । ओदनम् । पचति । वाम् । जनित्री ॥३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
विषय - कर्तव्य परायणता
पदार्थ -
१. (आपस्पुत्रासः) = [आप व्यासौ] हे सर्वव्यापक प्रभु के पुत्रो! (जीवधन्या:) = सन्तान के द्वारा धन्य जीवनवाले तुम (इमं जीवं समेत्य) = इस सन्तान को प्राप्त करके (अभिसंविशध्वम्) = अपने कर्तव्य-कर्मों में सम्यक् प्रविष्ट [संलग्न] हो जाओ। कर्तव्य-कर्मों में लगे रहने से ही वह उत्तम वातावरण बनता है, जिसमें सन्तानों का जीवन उत्तम होता है। २. (तासाम्) = उन सन्तानों के (यं अमृतं आहुः) = जिसको न मरने देनेवाला कहते हैं, उस ओदन का (भजध्वम्) = सेवन करो। वस्तुतः उत्तम भोजन से उत्तम वीर्य का निर्माण होकर सन्तान भी उत्तम होते हैं। भोजन का दोष सन्तानों को भी प्रभावित करता ही है। उस भोजन को खाओ (यं ओदनम्) = जिस भोजन को (वां जनित्री) = तुम्हें जन्म देनेवाली यह प्रकृतिमाता (पचति) = परिपक्व करती है, अर्थात् तुम बानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करो। ये पदार्थ तुम्हें अमृतत्व-नीरोगता प्राप्त कराएँगे।
भावार्थ -
[क] उत्तम सन्तानों को प्राप्त करके हम कर्तव्य-कर्मों में लगे रहने के द्वारा उस उत्तम वातावरण को पैदा करें, जिसमें सन्तानों का निर्माण ठीक ही हो। [ख] साथ ही प्रकृति से प्रदत्त अन्न व फलों का सेवन करते हुए अमृतत्व [नीरोगता] को प्राप्त करें।
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