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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 37
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    प्र॑वी॒यमा॑ना चरति क्रु॒द्धा गोप॑तये व॒शा। वे॒हतं॑ मा॒ मन्य॑मानो मृ॒त्योः पाशे॑षु बध्यताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽवी॒यमा॑ना । च॒र॒ति॒ । क्रु॒ध्दा । गोऽप॑तये । व॒शा । वे॒हत॑म्। मा॒ । मन्य॑मान: । मृ॒त्यो: । पाशे॑षु । ब॒ध्य॒ता॒म् ॥४.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रवीयमाना चरति क्रुद्धा गोपतये वशा। वेहतं मा मन्यमानो मृत्योः पाशेषु बध्यताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽवीयमाना । चरति । क्रुध्दा । गोऽपतये । वशा । वेहतम्। मा । मन्यमान: । मृत्यो: । पाशेषु । बध्यताम् ॥४.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 37

    पदार्थ -

    १. यह वशा कमनीया वेदवाणी (प्रवीयमाना) = [वी असने] परे फेंकी जाती हुई (गो-पतये) = [गौ-भूमि] भूमिपति राजा के लिए (क्रुद्धा चरति) = क्रुद्ध हुई-हुई गति करती है। यदि राजा राष्ट्र में इस वेदवाणी का प्रचार नहीं करता तो वह इस वशा के कोप का भाजन होता है। २. (मा) = मुझे-वशा को (वेहतम्) = एक बन्ध्या गौ [a barren cow] (मन्यमानः) = मानता हुआ-मुझे निष्फल समझता हुआ यह राजा (मृत्योः पाशेषु) = मृत्यु के पाशों में (बध्यताम्) = बाँधा जाए।

    भावार्थ -

    वेदवाणी का निरादर राष्ट्र की अवनति का, मृत्यु [परतन्त्रता] का कारण बनता है।

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