अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
यो अ॑स्या॒ ऊधो॒ न वे॒दाथो॑ अस्या॒ स्तना॑नु॒त। उ॒भये॑नै॒वास्मै॑ दुहे॒ दातुं॒ चेदश॑कद्व॒शाम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्या॒: । ऊध॑: । न । वेद॑ । अथो॒ इति॑ । अ॒स्या॒: । स्तना॑न् । उ॒त । उ॒भये॑न । ए॒व । अ॒स्मै॒ । दु॒हे॒ । दातु॑म् । च॒ । इत् । अश॑कत् । व॒शाम् ॥४.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्या ऊधो न वेदाथो अस्या स्तनानुत। उभयेनैवास्मै दुहे दातुं चेदशकद्वशाम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्या: । ऊध: । न । वेद । अथो इति । अस्या: । स्तनान् । उत । उभयेन । एव । अस्मै । दुहे । दातुम् । च । इत् । अशकत् । वशाम् ॥४.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
विषय - ऊधः स्तनान्
पदार्थ -
१. (यः) = जो (अस्या:) = इस वेदधेनु को (ऊधः न) = [Has, like] दुग्धाशय के समान समझता है। (उत अथो) = और अब (अस्या:) = इस वेदधेनु के (स्तनान) = स्तनों को वेद-जानता है। उन स्तनों से ज्ञानदुग्ध का दोहन करता है तो यह वेदधेनु (अस्मै) = इस दोग्धा के लिए (उभयेन एव) = इहलोक व परलोक दोनों के हेतु से (दुहे) = ज्ञानदुग्ध का प्रपूरण करती है। यह दोग्धा वेदधेनु से ज्ञानदुग्ध प्राप्त करके दोनों लोकों का कल्याण सिद्ध करता है। यह उसे अभ्युदय व नि:श्रेयस दोनों को प्राप्त करानेवाली होती है, परन्तु यह सब होता तभी है (चेत्) = यदि यह (वशाम्) = इस कमनीय वेदवाणी को (दातुं अशकत्) = औरों के लिए देने में समर्थ होता है।
भावार्थ -
हम वेदधेनु के दुग्धाशय व स्तनों को प्राप्त करके ज्ञानदुग्ध का दोहन करें। इस ज्ञान को औरों के लिए देनेवाले बनें। यह ज्ञान हमें अभ्युदय व निःश्रेयस देनेवाला होगा।
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