अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 31
मन॑सा॒ सं क॑ल्पयति॒ तद्दे॒वाँ अपि॑ गच्छति। ततो॑ ह ब्र॒ह्माणो॑ व॒शामु॑प॒प्रय॑न्ति॒ याचि॑तुम् ॥
स्वर सहित पद पाठमन॑सा । सम् । क॒ल्प॒य॒ति॒ । तत् । दे॒वान् । अपि॑ । ग॒च्छ॒ति॒ । तत॑: । ह॒ । ब्र॒ह्माण॑: । व॒शाम् । उ॒प॒ऽप्रय॑न्ति । याचि॑तुम् ॥४.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
मनसा सं कल्पयति तद्देवाँ अपि गच्छति। ततो ह ब्रह्माणो वशामुपप्रयन्ति याचितुम् ॥
स्वर रहित पद पाठमनसा । सम् । कल्पयति । तत् । देवान् । अपि । गच्छति । तत: । ह । ब्रह्माण: । वशाम् । उपऽप्रयन्ति । याचितुम् ॥४.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 31
विषय - शक्ति दिव्यगुण
पदार्थ -
१. यह वेदवाणी (मनसा) = मनन के द्वारा (संकल्पयति) = हमें सम्यक् समर्थ बनाती है [क्लप सामर्थ्य]। (तत्) = तब यह (अध्येता देवान् अपिगच्छति) = दिव्यगुणों की ओर गतिवाला होता है। शक्ति के साथ ही सब सद्गुणों का वास है। Virtue वीरत्व ही तो है। इसी कारण उपनिषद् में यह कहा गया है कि 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' निर्बल से आत्मतत्त्व अलभ्य है। २. (ततो ह) = उस कारण से ही, क्योंकि यह वशा हमें समर्थ बनाकर दिव्यगुण-सम्पन्न करती है, (ब्रह्मण:) = ब्राह्मणवृत्ति के लोग (वशाम्) = कमनीया वेदवाणी को (याचितुम्) = माँगने के लिए (उपप्रयन्ति) = ज्ञानियों के [गोपतियों के] समीप उपस्थित होते हैं।
भावार्थ -
वेदवाणी का मनन हमें शक्तिशाली बनाकर दिव्यगुण-सम्पन्न बनाता है, इसीलिए ब्राह्मणवृत्ति के लोग इस वशा की याचना के लिए गोपति के समीप उपस्थित होते हैं।
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