अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
चरे॑दे॒वा त्रै॑हाय॒णादवि॑ज्ञातगदा स॒ती। व॒शां च॑ वि॒द्यान्ना॑रद ब्राह्म॒णास्तर्ह्ये॒ष्याः ॥
स्वर सहित पद पाठचरे॑त् । ए॒व । आ । त्रै॒हा॒य॒नात् । अवि॑ज्ञातऽगदा । स॒ती । व॒शाम् । च॒ । वि॒द्यात् । ना॒र॒द॒ । ब्रा॒ह्म॒णा: । तर्हि॑ । ए॒ष्या᳡: ॥४.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
चरेदेवा त्रैहायणादविज्ञातगदा सती। वशां च विद्यान्नारद ब्राह्मणास्तर्ह्येष्याः ॥
स्वर रहित पद पाठचरेत् । एव । आ । त्रैहायनात् । अविज्ञातऽगदा । सती । वशाम् । च । विद्यात् । नारद । ब्राह्मणा: । तर्हि । एष्या: ॥४.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 16
विषय - आ त्रैहायणात्
पदार्थ -
१. (अविज्ञातगदा सती) = नहीं जाना गया है स्पष्ट उच्चारण [गद] जिसका, ऐसी होती हुई भी यह वेदवाणी (आ त्रैहायणात्) = तीन वर्ष की आयु से प्रारम्भ करके (चरेत् एव) = हमारे जीवन में विचरण करे ही। तीन वर्ष की आयु से ही हम इसे पढ़ना प्रारम्भ कर दें। १. हे (नारद) = नर सम्बन्धी 'शरीर, मन, इन्द्रियों व बुद्धि' को शुद्ध करनेवाले जीव ! [नरसम्बन्धिनं नारं दायति द्वैप शोधने] (वशां च विद्यात्) = जब इस वेदवाणी को कुछ जान जाए-तगत मन्त्रों को याद कर ले-(तर्हि) = तो (ब्राह्मणा: एष्या:) = अब ब्रह्मवेत्ता विद्वान् अन्वेषण के योग्य हैं, अर्थात् ज्ञानी ब्राह्मणों के समीप उपस्थित होकर उनसे वेदार्थ को जानना चाहिए।
भावार्थ -
तीन वर्ष की आयु से ही हम वेदों का स्मरण प्रारम्भ कर दें और अब स्मरणानन्तर ज्ञानी ब्राह्मणों के समीप पहुँचकर इसे समझने का प्रयत्न करें। इस प्राकर ही हमारा जीवन शुद्ध बनेगा।
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