अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
दे॒वा व॒शाम॑याच॒न्मुखं॑ कृ॒त्वा ब्राह्म॑णम्। तेषां॒ सर्वे॑षा॒मद॑द॒द्धेडं॒ न्येति॒ मानु॑षः ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वा: । व॒शाम् । अ॒या॒च॒न् । मुख॑म् । कृ॒त्वा । ब्राह्म॑णम् । तेषा॑म् । सर्वे॑षाम् । अद॑दत् । हेड॑म् । नि । ए॒ति॒ । मानु॑ष: ॥४.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
देवा वशामयाचन्मुखं कृत्वा ब्राह्मणम्। तेषां सर्वेषामददद्धेडं न्येति मानुषः ॥
स्वर रहित पद पाठदेवा: । वशाम् । अयाचन् । मुखम् । कृत्वा । ब्राह्मणम् । तेषाम् । सर्वेषाम् । अददत् । हेडम् । नि । एति । मानुष: ॥४.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 20
विषय - ब्राह्मणं मुखं कृत्वा
पदार्थ -
१. (ब्राह्मणं मुखं कृत्वा) = ब्राह्मण-ब्रह्मवेत्ता को मुख बनाकर (देवा:) = देववत्ति के व्यक्ति (वशाम्) = इस कमनीय वेदवाणी को (अयाचन्) = माँगते हैं। देव प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हम ब्राह्मणों से वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनें। २. परन्तु यदि यह (मानष:) = ज्ञानी ब्राह्मण (तेषां सर्वेषाम् अददत्) = उन सबके लिए इस वेदज्ञान को नहीं देता तो यह (हेडं नि एति) = घृणा को निश्चय से प्राप्त करता है। यह वेदज्ञान को न देनेवाला व्यक्ति आदरणीय नहीं होता।
भावार्थ -
देवलोग प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि हम ब्रह्मवेत्ताओं से कमनीय वेदवाणी का ज्ञान का प्राप्त करें, परन्तु यदि कोई ब्राह्मण प्रार्थित होने पर भी इस ज्ञान को नहीं देता तो वह आदरणीय नहीं होता।
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