अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 48
ए॒तद्वो॑ ब्राह्मणा ह॒विरिति॑ मन्वीत याचि॒तः। व॒शां चेदे॑नं॒ याचे॑यु॒र्या भी॒माद॑दुषो गृ॒हे ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । व॒: । ब्रा॒ह्म॒णा॒: । ह॒वि: । इति॑ । म॒न्वी॒त॒ । या॒चि॒त: । व॒शाम्। च॒ । इत् । ए॒न॒म् । याचे॑यु: । या । भी॒मा । अद॑दुष: । गृ॒हे॥४.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
एतद्वो ब्राह्मणा हविरिति मन्वीत याचितः। वशां चेदेनं याचेयुर्या भीमाददुषो गृहे ॥
स्वर रहित पद पाठएतत् । व: । ब्राह्मणा: । हवि: । इति । मन्वीत । याचित: । वशाम्। च । इत् । एनम् । याचेयु: । या । भीमा । अददुष: । गृहे॥४.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 48
विषय - ब्राह्मणों की हवि
पदार्थ -
१. (चेत्) = यदि (एनम्) = इस वेदज्ञ पुरुष से (वशां याचेयुः) = वेदवाणी की याचना करें, तो यह वेदज्ञ पुरुष उन वेदवाणी की प्राप्ति के इच्छुकों से यही कहे कि हे (ब्राह्मणा:) = ब्रह्मज्ञान के अभिलाषियो! (एतद् वः हवि:) = यह तो है ही आपकी हवि-यह तो आपको देने के लिए ही [हु दाने] है। २. (याचित:) = वेदवाणी को माँगता हुआ वेदज्ञ पुरुष (इतिमन्वीत) = यही विचार करे कि यह वेदवाणी तो वह है (या) = जोकि (अददुषः गृहे) = न देनेवाले के घर में (भीमा) = भयंकर है, अर्थात् यदि मैं पात्रों में इसको प्रदान न करूँगा तो यह मेरे लिए भयंकर होगी। वेदवाणी को देना ही पुण्य है, छिपाना पाप है।
भावार्थ -
वेदवाणी पात्रों में देने के लिए ही है। प्रार्थना किया हुआ भी वेदज्ञ पुरुष यदि इसे पात्रों में नहीं प्राप्त कराता तो वह अपने लिए अशुभ परिणामों को आमन्त्रित करता है।
इस भाष्य को एडिट करें