अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 45
नम॑स्ते अस्तु नारदानु॒ष्ठु वि॒दुषे॑ व॒शा। क॑त॒मासां॑ भी॒मत॑मा॒ यामद॑त्त्वा परा॒भवे॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । ना॒र॒द॒ । अ॒नु॒ष्ठु । वि॒दुषे॑ । व॒शा । क॒त॒मा । आ॒सा॒म्। भी॒मऽत॑मा । याम् । अद॑त्वा । प॒रा॒ऽभवे॑त् ॥४.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते अस्तु नारदानुष्ठु विदुषे वशा। कतमासां भीमतमा यामदत्त्वा पराभवेत् ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । अस्तु । नारद । अनुष्ठु । विदुषे । वशा । कतमा । आसाम्। भीमऽतमा । याम् । अदत्वा । पराऽभवेत् ॥४.४५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 45
विषय - कतमा भीमतमा
पदार्थ -
१. हे (नारद) = नरसम्बन्धी 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को शुद्ध करनेवाले साधक! (ते नमः अस्तु) = तेरे लिए नमस्कार हो। विदुषे ज्ञानी के लिए वशा-यह वेदवाणी अनुष्टु-अनुकूल स्थितिवाली होती है। २. (आसाम्) = इन वेदवाणियों में (कतमा भीमतमा) = कौन-सी अतिशयेन भयंकर है? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि वह भयंकर है (याम्) = जिसको (अदत्वा) = न देकर पराभवेत् पराभूत होता है। जिन वेदवाणियों की प्रेरणा से युवकों के जीवन का निर्माण होता है, जब उन वेदवाणियों को उनके लिए प्राप्त नहीं कराया जाता तब उनके जीवन विकृत होकर सारे परिवार के लिए दुर्गति का कारण बनते हैं। एवं, इन वेदवाणियों में जो (क-तमा) = अत्यन्त आनन्द का कारण होती है, वही न दी जाने पर (भीमतमा) = भयंकर हो जाती है।
भावार्थ -
हम जीवन की शुद्धि के लिए वेदवाणी को अपनाएँ। यह हमारे जीवनों को आनन्दमय बनाती है। यह वेदवाणी जब आनेवाली सन्तानों को प्रास नहीं कराई जाती, तो हमारे लिए यह भयंकर हो जाती है।
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