अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 34
यथाज्यं॒ प्रगृ॑हीतमालु॒म्पेत्स्रु॒चो अ॒ग्नये॑। ए॒वा ह॑ ब्र॒ह्मभ्यो॑ व॒शाम॒ग्नय॒ आ वृ॑श्च॒तेऽद॑दत् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । आज्य॑म् । प्रऽगृ॑हीतम् । आ॒ऽलु॒म्पेत् । स्रु॒च: । अ॒ग्नये॑ । ए॒व । ह॒ । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । व॒शाम् । अ॒ग्नये॑ । आ। वृ॒श्च॒ते॒ । अद॑दत् ॥४.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
यथाज्यं प्रगृहीतमालुम्पेत्स्रुचो अग्नये। एवा ह ब्रह्मभ्यो वशामग्नय आ वृश्चतेऽददत् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । आज्यम् । प्रऽगृहीतम् । आऽलुम्पेत् । स्रुच: । अग्नये । एव । ह । ब्रह्मऽभ्य: । वशाम् । अग्नये । आ। वृश्चते । अददत् ॥४.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 34
विषय - ब्रह्मयज्ञ
पदार्थ -
१. (यथा) = जिस प्रकार (प्रगृहीतम्) = चम्मच में सम्यक् लिया हुआ (आग्यम्) = घृत (स्त्रुच:) = चम्मच से (अग्नये) = अग्नि के लिए (आलुम्पेत) = छिन्न हो जाए, अर्थात् अग्नि में न डाला जाए (एवा ह) = इसप्रकार ही ब्रह्मभ्यः ब्रह्मचारियों के लिए (वशाम् अददत्) = कमनीया वेदवाणी को न देता हुआ (अग्नये आवश्चते) = अग्नि के लिए प्रगतिदेव के लिए छिन्न हो जाता है, अर्थात् जिस राष्ट्र में विद्यार्थियों के लिए आचार्यों द्वारा वेदज्ञान उसी प्रकार नहीं दिया जाता जैसे कि कोई चम्मच से घृत को अग्नि के लिए न दे, तो वह राष्ट्र उन्नत नहीं हो पाता।
भावार्थ -
'राष्ट्र में आचार्यों द्वारा विद्यार्थिरूप अग्नि में वेदज्ञानरूप घृत की आहुति पड़ती ही रहे' तभी राष्ट्र उन्नत होता है।
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