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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 33
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    व॒शा मा॒ता रा॑ज॒न्यस्य॒ तथा॒ संभू॑तमग्र॒शः। तस्या॑ आहु॒रन॑र्पणं॒ यद्ब्र॒ह्मभ्यः॑ प्रदी॒यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒शा । मा॒ता । रा॒ज॒न्य᳡स्य । तथा॑ । सम्ऽभू॑तम् । अ॒ग्र॒ऽश: । तस्या॑: । आ॒हु॒: । अन॑र्पणम् । यत् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । प्र॒ऽदी॒यते॑ ॥४.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वशा माता राजन्यस्य तथा संभूतमग्रशः। तस्या आहुरनर्पणं यद्ब्रह्मभ्यः प्रदीयते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वशा । माता । राजन्यस्य । तथा । सम्ऽभूतम् । अग्रऽश: । तस्या: । आहु: । अनर्पणम् । यत् । ब्रह्मऽभ्य: । प्रऽदीयते ॥४.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 33

    पदार्थ -

    १. (वशा) = यह वेदवाणी ही (राजन्यस्य) = एक क्षत्रिय की (माता) = निर्मात्री है। जैसे एक बालक माता से पोषित होता है और माता के निर्देश में चलकर ही उन्नत होता है, उसी प्राकर एक राजा इस वेदमाता से पोषित होता है और उसे वेदमाता के निर्देश के अनुसार ही चलना चाहिए। (तथा अग्रश: संभूतम्) = वैसा ही नियम प्रारम्भ में प्रभु द्वारा बना दिया गया है। ब्रह्म क्षत्रमध्नोति' ब्रह्म ही क्षत्र का संवर्धन करता है। २. (तस्याः) = उस वशा माता का यह (अनर्पणम् आहुः) = अत्याग कहाता है, (यत्) = जो (ब्रह्माभ्यः) = ज्ञान पिपासुओं के लिए (प्रदीयते) = इसका दान किया जाता है। राष्ट्र में आचार्यों द्वारा ब्रह्मचारियों के लिए सदा इस वेद का ज्ञान दिया जाता रहे', यही राष्ट्र द्वारा वेदवाणी का अत्याग होता है। ऐसा होने पर एक राष्ट्र उन्नत होता है।

    भावार्थ -

    राष्ट्र का निर्माण वेदमाता द्वारा होता है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही प्रभु ने यही व्यवस्था की कि राजा ब्राह्मण के निर्देशानुसार राष्ट्र-व्यवस्था करे। 'सृष्टि में आचार्य ब्रह्मचारियों के लिए वेदज्ञान देते रहें', यही राष्ट्र द्वारा बेदमाता का अत्याग है।

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