अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 35
पु॑रो॒डाश॑वत्सा सु॒दुघा॑ लो॒केऽस्मा॒ उप॑ तिष्ठति। सास्मै॒ सर्वा॒न्कामा॑न्व॒शा प्र॑द॒दुषे॑ दुहे ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रो॒डाश॑ऽवत्सा। सु॒ऽदुघा॑ । लो॒के । अ॒स्मै॒ । उप॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । सा । अ॒स्मै॒ । सर्वा॑न् । कामा॑न् । व॒शा । प्र॒ऽद॒दुषे॑ । दु॒हे॒ ॥४.३५॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरोडाशवत्सा सुदुघा लोकेऽस्मा उप तिष्ठति। सास्मै सर्वान्कामान्वशा प्रददुषे दुहे ॥
स्वर रहित पद पाठपुरोडाशऽवत्सा। सुऽदुघा । लोके । अस्मै । उप । तिष्ठति । सा । अस्मै । सर्वान् । कामान् । वशा । प्रऽददुषे । दुहे ॥४.३५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 35
विषय - पुरोडाशवत्सा
पदार्थ -
१. 'पुरः दाशति' आगे देता है, इसी से यह 'पुरोडाश' कहलाता है। यह पुरोडाश है प्रिय जिसको, ऐसी यह (पुरोडाशवत्सा) = आगे और आगे देनेवाले को प्यार करनेवाली यह वशा [वेदवाणी] (अस्मै) = इस पुरोडाश के लिए (लोके) = इस लोक में (सुदुघा) = उत्तम ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाली होती हुई (उपतिष्ठति) = उपस्थित होती है। २. उसके समीप उपस्थित होकर सा वशा-वह कमनीया वेदवाणी (अस्मै प्रददुषे) = इस वेदवाणी को औरों को देनेवाले के लिए (सर्वान् कामान्) = सब इष्ट पदार्थों को (दूहे) = प्रपूरित करती है।
भावार्थ -
वेदज्ञान को प्राप्त करके उस ज्ञान को ओरों को देनेवाला व्यक्ति ही वेदवाणी का प्रिय होता है। वेदवाणी अपने इस प्रिय के लिए सब इष्ट पदार्थों को प्राप्त कराती है।
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