अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 36
सर्वा॒न्कामा॑न्यम॒राज्ये॑ व॒शा प्र॑द॒दुषे॑ दुहे। अथा॑हु॒र्नार॑कं लो॒कं नि॑रुन्धा॒नस्य॑ याचि॒ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वा॑न् । कामा॑न्। य॒म॒ऽराज्ये॑ । व॒शा । प्र॒ऽद॒दुषे॑ । दु॒हे॒ ।अथ॑ । आ॒हु॒: । नर॑कम् । लो॒कम् । नि॒ऽरु॒न्धा॒नस्य॑ । या॒चि॒ताम् ॥४.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वान्कामान्यमराज्ये वशा प्रददुषे दुहे। अथाहुर्नारकं लोकं निरुन्धानस्य याचिताम् ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वान् । कामान्। यमऽराज्ये । वशा । प्रऽददुषे । दुहे ।अथ । आहु: । नरकम् । लोकम् । निऽरुन्धानस्य । याचिताम् ॥४.३६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 36
विषय - नारकं लोकं
पदार्थ -
१. यह (वशा) = कमनीया वेदवाणी (यमराज्ये) = इस नियन्ता प्रभु के राज्य में (प्रददुषे) = वेदवाणी को औरों को देनेवाले के लिए (सर्वान् कामान् दुहे) = सब इष्ट [काम्य] पदार्थों का दोहन [प्रपूरण] करती है। २. (अथ) = इसके विपरीत अब (याचिताम्) = माँगी हुई भी वेदवाणी को (निसन्धानस्य) = रोकनेवाले के (नारकं लोकं आहुः) = नरकलोक को कहते हैं, अर्थात् इस वशा के निरोधक को नरक की प्राप्ति होती है-इसकी दुर्गति होती है।
भावार्थ -
नियन्ता प्रभु के राज्य में जो वेदवाणी को औरों के लिए प्रास कराता है, उसकी सब इष्ट कामनाएं पूर्ण होती हैं और मांगने पर भी न देनेवाले को नरक की प्राप्ति होती है।
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