अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 39
म॒हदे॒षाव॑ तपति॒ चर॑न्ती॒ गोषु॒ गौरपि॑। अथो॑ ह॒ गोप॑तये व॒शाद॑दुषे वि॒षं दु॑हे ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हत् । ए॒षा । अव॑ । त॒प॒ति॒ । चर॑न्ती । गोषु॑ । गौ: । अपि॑ । अथो॒ इति॑ । ह॒ । गोऽप॑तये । व॒शा। अद॑दुषे । वि॒षम्। दु॒हे॒ ॥४.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
महदेषाव तपति चरन्ती गोषु गौरपि। अथो ह गोपतये वशाददुषे विषं दुहे ॥
स्वर रहित पद पाठमहत् । एषा । अव । तपति । चरन्ती । गोषु । गौ: । अपि । अथो इति । ह । गोऽपतये । वशा। अददुषे । विषम्। दुहे ॥४.३९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 39
विषय - विषं दुहे
पदार्थ -
१. (एषा) = यह (गौ:) = वेदवाणीरूपी गौ (गोषु) = ज्ञानरश्मियों में (चरन्ती अपि) = विचरती हुई भी (महत् अवतपति) = खूब ही दीप्त होती है। यह वेदज्ञान ज्ञानों में भी उत्तम ज्ञान है, यह सब ज्ञानों में देदीप्यमान होता है। २. (अथो ह) = ऐसी दीप्त होती हुई भी (वशा) = यह वेदवाणी (अददुषे गोपतये) = वेदज्ञान को औरों के लिए न देनेवाले गोपति [ज्ञानस्वामी] के लिए (विषं दुहे) = विष का दोहन करती है।
भावार्थ -
वेदज्ञान सर्वोत्तम ज्ञान है। यह ज्ञानों में भी ज्ञानरूप से दीस होता है, परन्तु जो गोपति बनकर औरों के लिए इस ज्ञान को नहीं देता, उसके लिए यह वेदवाणी विष का दोहन करती है।
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