अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
यद॑स्याः॒ पल्पू॑लनं॒ शकृ॑द्दा॒सी स॒मस्य॑ति। ततोऽप॑रूपं जायते॒ तस्मा॒दव्ये॑ष्य॒देन॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒स्या॒: । पल्पू॑लनम् । शकृ॑त् । दा॒सी । स॒म्ऽअस्य॑ति । तत॑: । अप॑ऽरूपम् । जा॒य॒ते॒ । तस्मा॑त् । अवि॑ऽएष्यत् । एन॑स: ॥४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यदस्याः पल्पूलनं शकृद्दासी समस्यति। ततोऽपरूपं जायते तस्मादव्येष्यदेनसः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अस्या: । पल्पूलनम् । शकृत् । दासी । सम्ऽअस्यति । तत: । अपऽरूपम् । जायते । तस्मात् । अविऽएष्यत् । एनस: ॥४.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
विषय - वेद की अवज्ञा से अपरूपता
पदार्थ -
१. (यत्) = जब (अस्या:) = इस वेदवाणी के (शकृत्) = [शं करोति शंकृत्-शकृत] शान्ति देनेवाले अथवा [शक्] शक्ति देनेवाले (पल्पूलनम्) = [पल गतौ, पूर संघाते] ज्ञान-समूह को दासी-[दसु उपक्षये] ज्ञान का हिंसन करनेवाली, ज्ञान में अरुचिवाली प्रजा समस्यति-अपने से दूर फेंकती है, ततः तब तस्माद् एनस:-उस ज्ञानहिंसनरूप पाप से अव्येष्यत्-[अवि एष्यत्] पृथक्न होता हुआ अपत्यवर्ग अपरूपं जायते-कुरूप हो जाता है। २. भोग-विलास की प्रवृत्ति में पड़कर वह अपनी शकल ही बिगाड़ लेता है। यदि वेदज्ञान को अपने से परे नहीं फेंकता तो यह वेदज्ञान उसे 'शान्ति व शक्ति' प्राप्त करनेवाला होता है।
भावार्थ -
वेदज्ञान की अवज्ञा एक ऐसा पाप है जो हमें अशक्त व अपरूप' बना देता है।
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