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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    स्वमे॒तद॑च्छायन्ति॒ यद्व॒शां ब्रा॑ह्म॒णा अ॒भि। यथै॑नान॒न्यस्मि॑ञ्जिनी॒यादे॒वास्या॑ नि॒रोध॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वम् । ए॒तत् । अ॒च्छ॒ऽआय॑न्ति । यत् । व॒शाम् । ब्रा॒ह्म॒णा: । अ॒भि । यथा॑ । ए॒ना॒न् । अ॒न्यस्मि॑न् । जि॒नी॒यात् । ए॒व । अ॒स्या॒: । नि॒ऽरोध॑नम् ॥४.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वमेतदच्छायन्ति यद्वशां ब्राह्मणा अभि। यथैनानन्यस्मिञ्जिनीयादेवास्या निरोधनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वम् । एतत् । अच्छऽआयन्ति । यत् । वशाम् । ब्राह्मणा: । अभि । यथा । एनान् । अन्यस्मिन् । जिनीयात् । एव । अस्या: । निऽरोधनम् ॥४.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (ब्राह्मणा:) = ज्ञानी पुरुष (वशाम् अभि आयन्ति) = वेदवाणी की ओर आते हैं (एतत्) = ये (स्वम् अच्छ)[आयन्ति] = अपने ऐश्वर्य की ओर आते हैं। ब्राह्मणों का ऐश्वर्य वेदवाणी ही तो है। २. (यथा) = जिस प्रकार [चूँकि] (अस्याः निरोधनम्) = इस वेदवाणी का रोक देना, अर्थात् वेदवाणी को छोड़कर अन्य कर्मों में प्रवृत्त होना (एनान्) = इन ब्राह्मणों को (अन्यस्मिन् जिनीयात् एव) = अन्य व्यापार आदि कर्मों में हिसित ही करता है। यदि एक ब्राह्मण धन के लोभ में वेदवाणी को छोड़कर अन्य कार्यों में प्रवृत्त होता है तो उसके वे व्यापार आदि कर्म हिंसित ही होते हैं।

    भावार्थ -

    ब्राह्मण का धन 'वेदवाणी' ही है। यदि यह वेदाध्ययन विमुख होकर व्यापार में लगेगा तो यह वेदवाणी का निरोधरूप पाप उसके व्यापार को असफल बनाएगा।

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