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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 51
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    ये व॒शाया॒ अदा॑नाय॒ वद॑न्ति परिरा॒पिणः॑। इन्द्र॑स्य म॒न्यवे॑ जा॒ल्मा आ वृ॑श्चन्ते॒ अचि॑त्त्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । व॒शाया॑: । अदा॑नाय । वद॑न्ति । प॒रि॒ऽरा॒पिण॑: । इन्द्र॑स्य । म॒न्यवे॑ । जा॒ल्मा: । आ । वृ॒श्च॒न्ते॒ । अचि॑त्त्या ॥४.५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये वशाया अदानाय वदन्ति परिरापिणः। इन्द्रस्य मन्यवे जाल्मा आ वृश्चन्ते अचित्त्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । वशाया: । अदानाय । वदन्ति । परिऽरापिण: । इन्द्रस्य । मन्यवे । जाल्मा: । आ । वृश्चन्ते । अचित्त्या ॥४.५१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 51

    पदार्थ -

    १. (ये) = जो (परिरापिण:) = व्यर्थ की बातें करनेवाले लोग (वशाया:) = वेदवाणी के (अदानाय) = न देने के लिए (वदन्ति) = व्यर्थ की युक्तियों का प्रतिपादन करते हैं। वे (जाल्मा:) = असमीक्ष्यकारी लोग (अचित्या) = इस नासमझी से (इन्द्रस्य) = उस शत्रुविदारक प्रभु के (मन्यवे आवश्चन्ते) = क्रोध के लिए छिन्न-भिन्न होते हैं, अर्थात् इनपर प्रभु का कोप होता है और ये विनष्ट हो जाते हैं।

    भावार्थ -

    वेदवाणी का प्रसार करना ही चाहिए। उसके प्रसार को रोकने के बहाने न ढूंढने चाहिएँ। ऐसा करेंगे तो हम प्रभु के कोपभाजन होंगे।

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