अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 46
वि॑लि॒प्ती या बृ॑हस्प॒तेऽथो॑ सू॒तव॑शा व॒शा। तस्या॒ नाश्नी॑या॒दब्रा॑ह्मणो॒ य आ॒शंसे॑त॒ भूत्या॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽलि॒प्ती । या । बृ॒ह॒स्प॒ते॒ । अथो॒ इति॑ । सू॒तऽव॑शा । व॒शा । तस्या॑: । न । अ॒श्नी॒या॒त्। अब्रा॑ह्मण: । य: । आ॒ऽशंसे॑त । भूत्या॑म् ॥४.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
विलिप्ती या बृहस्पतेऽथो सूतवशा वशा। तस्या नाश्नीयादब्राह्मणो य आशंसेत भूत्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठविऽलिप्ती । या । बृहस्पते । अथो इति । सूतऽवशा । वशा । तस्या: । न । अश्नीयात्। अब्राह्मण: । य: । आऽशंसेत । भूत्याम् ॥४.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 46
विषय - सूतवशा वशा
पदार्थ -
१. हे (बृहस्पते) = ज्ञानिन्! (वशा) = जो वेदवाणी (विलिप्ती) = हमारी शक्तियों का विशेषरूप से उपचय करनेवाली है और जो (सूतवशा) = अपने जीवन का नियन्त्रण करनेवाले के वश में होती है, (तस्याः) = उस वेदवाणी का वह (अब्राह्मण:) = अब्रह्मचारी (न अश्नीयात्) = नहीं उपभोग कर पाता, (यः) = जोकि (भूत्यां आशंसेत) = ऐश्वर्य में इच्छावाला होता है। धन की ओर झुकाव हो जाने पर मनुष्य वेदवाणी को नहीं प्राप्त करता। यह वेदवाणी हमारी शक्तियों का उपचय करती है और उसी को प्रास होती है जोकि अपना नियन्त्रण करनेवाला बनता है।
भावार्थ -
धनासक्त अब्राह्मण इस वेदवाणी को नहीं प्राप्त करता। यह शक्तियों का उपचय करनेवाली वेदवाणी नियनता को ही प्राप्त होती है।
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