अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 30
आ॒विरा॒त्मानं॑ कृणुते य॒दा स्थाम॒ जिघां॑सति। अथो॑ ह ब्र॒ह्मभ्यो॑ व॒शा या॒च्ञाय॑ कृणुते॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒वि: । आ॒त्मान॑म्। कृ॒णु॒ते॒ । य॒दा । स्थाम॑ । जिघां॑सति । अथो॒ इति॑ । ह॒ । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । व॒शा । या॒ञ्चाय॑ । कृ॒णु॒ते॒ । मन॑: ॥४.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
आविरात्मानं कृणुते यदा स्थाम जिघांसति। अथो ह ब्रह्मभ्यो वशा याच्ञाय कृणुते मनः ॥
स्वर रहित पद पाठआवि: । आत्मानम्। कृणुते । यदा । स्थाम । जिघांसति । अथो इति । ह । ब्रह्मऽभ्य: । वशा । याञ्चाय । कृणुते । मन: ॥४.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 30
विषय - ज्ञान की अधिकाधिक पिपासा
पदार्थ -
१. (यदा) = जब एक ब्राह्मण [ब्रह्म-वेद-को जानने का इच्छुक पुरुष] (स्थाम जिघांसति) = शक्ति व स्थिरता को प्राप्त करने की कामना करता है, तब यह वशा [वेदवाणी] उसके लिए (आत्मानं आविः कृणुते) = अपने को प्रकट करती है। उससे तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके ही वासनात्मक जगत् से ऊपर उठकर शक्ति व स्थिरता का सम्पादन करता है। २. (अथो ह) = और अब ही (वशा) = यह वेदवाणी (ब्रह्मभ्यः याच्छ्याय) = ज्ञानों की याचना के लिए (मनः कृणुते) = मन को करती है, अर्थात् यह वशा अपने अध्येता के मन को इस रूप में प्रेरित करती है कि वह अधिकाधिक ज्ञान का पिपासु होता जाता है।
भावार्थ -
वेदवाणी का प्रकाश उसी के लिए होता है जो शक्ति व स्थिरता के सम्पादन के लिए यत्न करता है। वेदवाणी इसके मन को अधिकाधिक ज्ञान की ओर आकृष्ट करती है।
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