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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 43
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    कति॒ नु व॒शा ना॑रद॒ यास्त्वं वे॑त्थ मनुष्य॒जाः। तास्त्वा॑ पृच्छामि वि॒द्वांसं॒ कस्या॒ नाश्नी॑या॒दब्रा॑ह्मणः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कति॑ । नु । व॒शा: । ना॒र॒द॒ । या: । त्वम् । वेत्थ॑ । म॒नु॒ष्य॒ऽजा: । ता: । त्वा॒ । पृ॒च्छा॒मि॒ । वि॒द्वांस॑म् । कस्या॑: । न । अ॒श्नी॒या॒त् । अब्रा॑ह्मण: ॥४.४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कति नु वशा नारद यास्त्वं वेत्थ मनुष्यजाः। तास्त्वा पृच्छामि विद्वांसं कस्या नाश्नीयादब्राह्मणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कति । नु । वशा: । नारद । या: । त्वम् । वेत्थ । मनुष्यऽजा: । ता: । त्वा । पृच्छामि । विद्वांसम् । कस्या: । न । अश्नीयात् । अब्राह्मण: ॥४.४३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 43

    पदार्थ -

    १.हे (नारद) = नरसम्बन्धी 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को शुद्ध करनेवाले विद्वन्। (कति नु वशा:) = कितनी वे वेदवाणियाँ हैं, (या:) = जिन्हें (त्वम्) = आप (मनुष्यजाः वेत्थ) = मनुष्यों में प्रादुर्भूत होनेवाली जानते हो, अर्थात् मनुष्यों में प्रभु ने कितनी ज्ञान की वाणियों को स्थापित किया है? (ता:) = उन्हें (विद्वांसं त्वा) = ज्ञानी तुझको (पृच्छामि = -पूछता हूँ। यह भी पूछता हूँ कि (अब्राह्मण:) = ज्ञान की अरुचिबाला-अब्रह्मचारी (कस्याः न अश्नीयात्) = किसका उपभोग नहीं कर पाता? यह अब्रह्मचारी किस वाणी को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता?

    भावार्थ -

    कितनी ही ज्ञान-वाणियाँ हैं, जिनका प्रभु द्वारा मनुष्य में प्रादुर्भाव किया जाता है, अब्रह्मचारी उन ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता।

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