अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 32
सूक्त - कश्यपः
देवता - वशा
छन्दः - उष्ण्ग्बृहतीगर्भा
सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
स्व॑धाका॒रेण॑ पि॒तृभ्यो॑ य॒ज्ञेन॑ दे॒वता॑भ्यः। दाने॑न राज॒न्यो व॒शाया॑ मा॒तुर्हेडं॒ न ग॑च्छति ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒धा॒ऽका॒रेण॑ । पि॒तृऽभ्य॑: । य॒ज्ञेन॑ । दे॒वता॑भ्य: । दाने॑न । रा॒ज॒न्य᳡: । व॒शाया॑: । मा॒तु: । हेड॑म् । न । ग॒च्छ॒ति॒ ॥४.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वधाकारेण पितृभ्यो यज्ञेन देवताभ्यः। दानेन राजन्यो वशाया मातुर्हेडं न गच्छति ॥
स्वर रहित पद पाठस्वधाऽकारेण । पितृऽभ्य: । यज्ञेन । देवताभ्य: । दानेन । राजन्य: । वशाया: । मातु: । हेडम् । न । गच्छति ॥४.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 32
विषय - पितृयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ
पदार्थ -
१. एक (राजन्य:) = अपनी प्रजाओं का रञ्जन करनेवाला राजा (पितृभ्यः स्वधाकारण) = पितरों के लिए स्वधा के द्वारा, अर्थात् पितृयज्ञ करने से, तथा (देवताभ्यः) = वायु आदि देवों की शुद्धि के लिए (यज्ञेन) = देवयज्ञ [अग्निहोत्र] के द्वारा तथा दानेन सब भूतों के हित के लिए अन्न आदि के देने के द्वारा, अर्थात् भूतयज्ञ [बलिवैश्वदेवयज्ञ] के द्वारा इस (मातुः) = जीवनों का निर्माण करने वाली (वशाया:) = कमनीया वेदवाणी के (हेडं न गच्छति) = निरादर को नहीं प्राप्त होता। २. जिस राष्ट्र में 'पितृयज्ञ, देवयज्ञ व भूतयज्ञ' आदि यज्ञों का आयोजन होता रहता है, उस राष्ट्र पर इस वशा माता की कृपा बनी रहती है। वेद के अनुसार चलता हुआ वह राष्ट्र फूलता-फलता रहता है।
भावार्थ -
एक राजा अपने राष्ट्र में 'पितृयज्ञ, देवयज्ञ व भूतयज्ञ' को प्रचलित करता हुआ वेदमाता का प्रिय बनता है। वेद उस राष्ट्र का सुन्दर निर्माण करता है।
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