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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 4/ मन्त्र 42
    सूक्त - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त

    तां दे॒वा अ॑मीमांसन्त व॒शेया३मव॒शेति॑। ताम॑ब्रवीन्नार॒द ए॒षा व॒शानां॑ व॒शत॒मेति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । दे॒वा: । अ॒मी॒मां॒स॒न्त॒ । व॒शा । इ॒या३म् । अव॑शा३ । इति॑ । ताम् । अ॒ब्र॒वी॒त् । ना॒र॒द: । ए॒षा । व॒शाना॑म् । व॒शऽत॑मा । इति॑ ॥४.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां देवा अमीमांसन्त वशेया३मवशेति। तामब्रवीन्नारद एषा वशानां वशतमेति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । देवा: । अमीमांसन्त । वशा । इया३म् । अवशा३ । इति । ताम् । अब्रवीत् । नारद: । एषा । वशानाम् । वशऽतमा । इति ॥४.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 42

    पदार्थ -

    १. (देवा:) = देववृत्ति के लोग (ताम्) = उस वेदवाणी को (अमीमांसन्त) = सोचने लगे कि (इयं वशा अवशा इति) = यह वेदवाणी कमनीया [चाहने योग्य] है अथवा कमनीया नहीं है। यह चाहने योग्य है, अथवा चाहने योग्य नहीं है। २. इस विचार के होने पर (नारदः) = नरसम्बन्धी इन्द्रियों, मन व बुद्धि' का शोधक नारद (अब्रवीत्) = बोला कि यह तो (वशानां वशतमा इति) = कमनीय वस्तुओं में कमनीयतम है-इससे अधिक कामना के योग्य और कोई वस्तु है ही नहीं।

    भावार्थ -

    वेदवाणी वस्तुत: सर्वाधिक कमनीय वस्तु है। यह मनुष्य का सर्वाधिक कल्याण करनेवाली है।

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