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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 27
अदि॑तिर्मादि॒त्यैः प्र॒तीच्या॑ दि॒शः पा॑तु बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वीद्यामि॑वो॒परि॑। लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑ति: । मा॒ । आ॒दि॒त्यै: । प्र॒तीच्या॑: । दि॒श: । पा॒तु॒ । बा॒हु॒ऽच्युता॑ । पृ॒थि॒वी । द्यामऽइ॑व । उ॒परि॑ । लो॒क॒ऽकृत॑: । प॒थि॒ऽकृत॑: । य॒जा॒म॒हे॒ । ये । दे॒वाना॑म् । हु॒तऽभा॑गा: । इ॒ह । स्थ ॥३.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
अदितिर्मादित्यैः प्रतीच्या दिशः पातु बाहुच्युता पृथिवीद्यामिवोपरि। लोककृतः पथिकृतो यजामहे ये देवानां हुतभागा इह स्थ॥
स्वर रहित पद पाठअदिति: । मा । आदित्यै: । प्रतीच्या: । दिश: । पातु । बाहुऽच्युता । पृथिवी । द्यामऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(अदितिः) अदीना अनश्वर देवमाता अर्थात् जगज्जननी (मा) मुझे (आदित्यैः) अस्तगत आदित्य-रश्मियों द्वारा (प्रतीच्याः दिशः) पश्चिम दिशा से (पातु) सुरक्षित करें। 'बाहुच्युता'-आदि पूर्ववत् (२५)।
टिप्पणी -
[आदित्यै:= जब सूर्य अस्त होता है, तब सूर्य की रश्मियां भी अस्त हो रही होती हैं। इन अस्त हो रही रश्मियों को आदित्य कहा है। क्यों कि अस्तगत होती हुई सूर्य की रश्मियां समग्र जगद्-व्यवहारों का "आदान" अर्थात् संहार कर देती हैं। आददते जगद्-व्यवहारान् इत्यादित्याः, तैः। सूर्यरश्मियों के अभाव में सब को, अपने-अपने व्यवहारों को समाप्त कर देने तथा शयन द्वारा सुखशान्ति प्राप्त होती है, यही रक्षा है।]