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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 41
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
दे॒वेभ्यः॒कम॑वृणीत मृ॒त्युं प्र॒जायै॒ किम॒मृतं॒ नावृ॑णीत। बृह॒स्पति॑र्य॒ज्ञम॑तनुत॒ऋषिः॑ प्रि॒यां य॒मस्त॒न्वमा रि॑रेच ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वेभ्य॑: । कम् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । मृ॒त्युम् । प्र॒ऽजायै॑ । किम् । अ॒मृत॑म् । न । अ॒वृ॒णी॒त॒ । बृह॒स्पति॑: । य॒ज्ञम् । अ॒त॒नु॒त॒ । ऋषि॑: । प्रि॒याम् । य॒म: । त॒न्व॑म् । आ । रि॒रे॒च॒ ॥३.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
देवेभ्यःकमवृणीत मृत्युं प्रजायै किममृतं नावृणीत। बृहस्पतिर्यज्ञमतनुतऋषिः प्रियां यमस्तन्वमा रिरेच ॥
स्वर रहित पद पाठदेवेभ्य: । कम् । अवृणीत । मृत्युम् । प्रऽजायै । किम् । अमृतम् । न । अवृणीत । बृहस्पति: । यज्ञम् । अतनुत । ऋषि: । प्रियाम् । यम: । तन्वम् । आ । रिरेच ॥३.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 41
भाषार्थ -
(देवेभ्यः) दिव्यगुणों वाले जीवन्मुक्तों के लिये (बृहस्पतिः) महा ब्रह्माण्ड के स्वामी ने (कम्) मोक्षसुखदायी (मृत्युम्) मृत्यु को (अवृणीत) स्वीकार किया है, (प्रजायै) समग्र प्रजा के लिये उसने (अमृतम्) मोक्ष-सुखदायी मृत्यु को (किम्) क्यों (न) नहीं (अवृणीत) स्वीकार किया ? वस्तुतः महाब्रह्माण्ड के स्वामी, तथा (ऋषिः) वेदार्थ-रहस्यों के प्रवक्ता परमेश्वर ने प्रजा के लिये, मोक्ष सुखप्राप्ति के निमित्त, वेदों में (यज्ञम्) यज्ञिय कर्मकलाप का (अतनुत) विस्तार किया है। और इसी निमित्त (यमः) जगन्नियन्ता परमेश्वर प्रजाजनों की (प्रियां तत्वम्) प्रिय तनुओं को (आ रिरेच) आत्माओं से विहीन करता रहता है। उनका बार-बार जन्म-मरण करता रहता है।
टिप्पणी -
[जीवन्मुक्तों की मृत्यु अन्तिम मृत्यु-सी होती है। यह सुखदायी मृत्यु होती है। क्योंकि इस मृत्यु के पश्चात् उन्हें मोक्षसुख मिलता है। जीवन्मुक्त से भिन्न प्रजाजन के लिये परमेश्वर तबतक उन्हें सुखदायी अन्तिम मृत्यु नहीं देता, जब तक कि वे वेदप्रतिपादित यज्ञिय कर्मकलापों के अनुसार अपना आचार-विचार और जीवन नहीं बना लेते। एतदर्थ ही ब्रह्माण्ड के स्वामी ने वेदों में यज्ञिय कर्मकलाप का विस्तृत वर्णन किया है। परमेश्वर प्रजाजनों को बार-बार जन्म देकर और उन की बार-बार मृत्युएं कर, उन्हें वैदिक यज्ञिय कर्मकलापों के अनुष्ठान का स्ववसर इस प्रकार बार-बार देता रहता है।]