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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 43
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
आसी॑नासोअरु॒णीना॑मु॒पस्थे॑ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्यः॑ पितर॒स्तस्य॒वस्वः॒ प्र य॑च्छत॒ त इ॒होर्जं॑ दधात ॥
स्वर सहित पद पाठआसी॑नास: । अ॒रु॒णीना॑म् । उ॒पऽस्थे॑ । र॒यिम् । ध॒त्त॒ । दा॒शुषे॑ । मर्त्या॑य । पु॒त्रेभ्य: । पि॒त॒र॒: । तस्य॑ । वस्व॑: । प्र । य॒च्छ॒त॒ । ते । इ॒ह । ऊर्ज॑म् । द॒धा॒त॒ ॥३.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
आसीनासोअरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। पुत्रेभ्यः पितरस्तस्यवस्वः प्र यच्छत त इहोर्जं दधात ॥
स्वर रहित पद पाठआसीनास: । अरुणीनाम् । उपऽस्थे । रयिम् । धत्त । दाशुषे । मर्त्याय । पुत्रेभ्य: । पितर: । तस्य । वस्व: । प्र । यच्छत । ते । इह । ऊर्जम् । दधात ॥३.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 43
भाषार्थ -
हे पितरो ! (अरुणीनाम् ) चमकती – उषाओं की (उपस्थे) गोद में (आसीनासः) बैठकर, (दाशुषे मर्त्याय) प्रजोपकारार्थ प्राप्त धन का व्यय करने वाले मनुष्य को (रयिं धत्त) कुछ धन दे दो। हे पितरो ! (तस्य) उस (वस्वः) शेष धन का दायभाग निश्चित करके, (पुत्रेभ्यः) पुत्रों को (प्र यच्छत) दे दो, ताकि (ते) वे पुत्र (इह) इस गृहस्थ में (ऊर्जम्) बल और प्राण (दधात) धारण कर सकें। दधात= पुरुषव्यत्यय॥
टिप्पणी -
[गृहस्थियों को उपदेश दिया गया कि वे उषा की रश्मियों का सेवन किया करें। और इस सात्विक काल में सत्पात्रों को सात्विक दान दिया करें। और वानप्रस्थ होते समय इस सात्त्विक काल में पुत्रों के प्रति निज सम्पत्ति वांट कर वानप्रस्थी बनें। “अरुण्यः गावः (रश्मयः) उषसाम्” (निघं० १।१५)।]