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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 25
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    इन्द्रो॑ माम॒रुत्वा॒न्प्राच्या॑ दि॒शः पा॑तु बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑।लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । मा॒ । म॒रुत्वा॑न् । प्राच्या॑: । दि॒श: । पा॒तु॒ । बा॒हु॒ऽच्युता॑ । पृ॒थि॒वी । द्यामऽइ॑व । उ॒परि॑ । लो॒क॒ऽकृत॑: । प॒थि॒ऽकृत॑: । य॒जा॒म॒हे॒ । ये । दे॒वाना॑म् । हु॒तऽभा॑गा: । इ॒ह । स्थ ॥३.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मामरुत्वान्प्राच्या दिशः पातु बाहुच्युता पृथिवी द्यामिवोपरि।लोककृतः पथिकृतो यजामहे ये देवानां हुतभागा इह स्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । मा । मरुत्वान् । प्राच्या: । दिश: । पातु । बाहुऽच्युता । पृथिवी । द्यामऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 25

    भाषार्थ -
    (इन्द्रः) ऐश्वर्यों का स्वामी परमेश्वर, (मरुत्वान्) जो कि सब मरणधर्मा मनुष्यों का अधिष्ठाता है, वह (मा) मुझे (प्राच्याः दिशः) पूर्व दिशा से (पातु) सुरक्षित करे, (इव) जैसे कि (बाहुच्युता) परमेश्वर के बल और पराक्रम से प्रेरित हुई-हुई (पृथिवी) पृथिवी (उपरि) अपने ऊपर पड़े (द्याम्) दैनिक प्रकाश की रक्षा करती है। हे दिव्यकोटि के मनुष्यो! (ये) जो आप (इह) इस भूमि में (हुतभागाः) यज्ञाहुतियां देकर यज्ञशेष भाग का सेवन करते (स्थ) हो, उन में से (देवानाम्) उन दिव्य मनुष्यों की (यजामहे) हम पूजा सत्संगति तथा दान द्वारा सत्कार करते हैं, जोकि (लोककृतः) लोगों का कल्याण करते, और उन्हें (पथिकृतः) सत्पथ पर चलाते हैं।

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