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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
इ॒दं त॒एकं॑ प॒र ऊ॑ त॒ एकं॑ तृ॒तीये॑न॒ ज्योति॑षा॒ सं वि॑शस्व। सं॒वेश॑ने त॒न्वा॒चारु॑रेधि प्रि॒यो दे॒वानां॑ पर॒मे स॒धस्थे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । ते॒ ।एक॑म् । प॒र: । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । एक॑म् । तृ॒तीये॑न । ज्योति॑षा । सम् । वि॒श॒स्व॒ । स॒म्ऽवेश॑ने । त॒न्वा॑ । चारु॑: । ए॒धि॒ । प्रि॒य: । दे॒वाना॑म् । प॒र॒मे । स॒धऽस्थे॑ ।३.७॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं तएकं पर ऊ त एकं तृतीयेन ज्योतिषा सं विशस्व। संवेशने तन्वाचारुरेधि प्रियो देवानां परमे सधस्थे ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । ते ।एकम् । पर: । ऊं इति । ते । एकम् । तृतीयेन । ज्योतिषा । सम् । विशस्व । सम्ऽवेशने । तन्वा । चारु: । एधि । प्रिय: । देवानाम् । परमे । सधऽस्थे ।३.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(इदम्) यह इन्द्रियों समेत शरीर (ते) तेरी (एकम्) एक ज्योति है। (परः) इससे परे मन (ऊ) निश्चय से (ते) तेरी (एकम्) एक अर्थात् दूसरी ज्योति है, (तृतीयेन ज्योतिषा) तीसरी ज्योति जो कि सत्त्वमय बुद्धितत्व है। उसके साथ हे जीवात्मन् ! तू (सं विशस्व) परमेश्वरीय ज्योति में प्रवेश पा। (संवेशने) परमेश्वरीय ज्योति में प्रविष्ट होते समय (तन्वा) सत्त्वमय बुद्धितत्त्वरूपी कारणशरीर द्वारा, तू (चारुः एधि) परमेश्वर के लिए रोचकरूप में हो जा, अर्थात् परमेश्वर की स्वीकृति के योग्य हो जा, और (परमे) सर्वोत्कृष्ट परात्पर, (सधस्थे) तथा मुक्तात्माओं के सहस्थिति के स्थान परमेश्वर में स्थित (देवानाम्) दिव्य मुक्तात्माओं का (प्रियः) प्रिय बन जा।
टिप्पणी -
[मन्त्र में उस मुक्ति का वर्णन है जिस में कि जीवात्मा, शरीर इन्द्रियों और मन से छुटकारा पाकर, कारणशरीर अर्थात् सत्त्वमय बुद्धितत्त्व को साथ लिये, परमेश्वर में प्रवेश पाता है। और इसी कारण शरीर से बन्धा हुआ कालान्तर में पुनः जन्म पाता है। अर्थात् मन इन्द्रियों और स्थूल शरीर का पुनः ग्रहण करता है। इस नए पुनर्जन्म का वर्णन अगले मन्त्रों में है।]