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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 64
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - भुरिक् पथ्यापङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
आ रो॑हत॒दिव॑मुत्त॒मामृष॑यो॒ मा बि॑भीतन। सोम॑पाः॒ सोम॑पायिन इ॒दं वः॑ क्रियतेह॒विरग॑न्म॒ ज्योति॑रुत्त॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रो॒ह॒त॒ । दिव॑म् । उ॒त्ऽत॒माम् । ऋष॑य: । मा । बि॒भी॒त॒न॒ । सोम॑ऽपा: । सोम॑ऽपायिन: । इ॒दम् । व॒: । क्रि॒य॒ते॒ । ह॒वि: । अग॑न्म । ज्योति॑: । उ॒त्ऽत॒मम् ॥३.६४॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोहतदिवमुत्तमामृषयो मा बिभीतन। सोमपाः सोमपायिन इदं वः क्रियतेहविरगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोहत । दिवम् । उत्ऽतमाम् । ऋषय: । मा । बिभीतन । सोमऽपा: । सोमऽपायिन: । इदम् । व: । क्रियते । हवि: । अगन्म । ज्योति: । उत्ऽतमम् ॥३.६४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 64
भाषार्थ -
(ऋषयः) हे ऋषियो ! (उत्तमाम्) सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ (दिवम्) मस्तिष्क-स्थित सहस्रारचक्र तक (आ रोहत) आरोहण करो। और इस प्रकार (बिभीतन मा) जन्म-मरण के भय से रहित हो जाओ। (सोमपाः) हे वीर्य की रक्षा करनेवाले ! तथा (सोमपायिनः) ऊर्ध्वरेता होकर उसका पान करनेवाले ऋषियो ! (इदम्) यह (हविः) ज्ञानमय हवि (वः) आप को (क्रियते) दी जाती है। देखो ! इस ज्ञान को पाकर हम जीवन्मुक्त (उत्तमं ज्योतिः) सर्वश्रेष्ठ ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर को (अगन्म) प्राप्त हुए हुए हैं।
टिप्पणी -
[ऋषयः= ऋषि दो प्रकार के हैं-मन्त्रद्रष्टा और मन्त्रार्थद्रष्टा। प्रारम्भ के ऋषि, जिनके द्वारा वेद प्रकट हुए, वे मन्त्रद्रष्टा थे। और पीछे के ऋषि मन्त्रार्थद्रष्टा हुए हैं। इन पिछले ऋषियों के सम्बन्ध में कहा है कि यद्यपि तुम मन्त्रार्थद्रष्टा हो, परन्तु मन्त्रार्थद्रष्टा होने के कारण तुम जन्म-मरण के बन्धन से छूट नहीं सकते। जन्म-मरण के बन्धन से छूटने का मार्ग एक ही है। वह है-योगमार्ग, चित्त को वृत्तिशून्य कर देने का मार्ग, और ईश्वर-प्राणिधान। इसलिये योगसाधना द्वारा तुम सहस्रारचक्र तक आरोहण कर युक्त हो जाओ, और ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होओ। पिण्ड और ब्रह्माण्ड में साम्य है। पिण्ड का शिरोभाग "दिव" है, द्युलोक है। यथा- "दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२); तथा "शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३)।]