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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 50
सूक्त - भूमि
देवता - प्रस्तार पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
उच्छ्व॑ञ्चस्वपृथिवि॒ मा नि बा॑धथाः सूपाय॒नास्मै॑ भव सूपसर्प॒णा। मा॒ता पु॒त्रं यथा॑सि॒चाभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । श्व॒ञ्च॒स्व॒ । पृ॒थि॒वि॒ । मा । नि । वा॒ध॒था॒: । सु॒ऽउ॒पा॒य॒ना । अ॒स्मै॒ । भ॒व॒ । सु॒ऽउ॒प॒स॒र्प॒णा । मा॒ता । पु॒त्रम् । यथा॑ । सि॒चा । अ॒भि । ए॒न॒म् । भू॒मे॒ । ऊ॒र्णु॒हि॒ ॥३.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्छ्वञ्चस्वपृथिवि मा नि बाधथाः सूपायनास्मै भव सूपसर्पणा। माता पुत्रं यथासिचाभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । श्वञ्चस्व । पृथिवि । मा । नि । वाधथा: । सुऽउपायना । अस्मै । भव । सुऽउपसर्पणा । माता । पुत्रम् । यथा । सिचा । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥३.५०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 50
भाषार्थ -
(पृथिवि) हे पृथिवी ! जीवित प्राणियों के द्वारा (उच्छ्वञ्चस्व) तु उद्गति को प्राप्त हो, उन्नति को प्राप्त हो, (मा नि बाधथाः) उन्नति में तू विघ्न-बाधारूप न हो। (अस्मै) इस जीवित प्राणिवर्ग के लिये (सूपायना) उत्तमोत्तम भेंट देनेवाली (भव) तू बन। (सूपसर्पणा) उस के लिये सुगमता से विचरने योग्य बन। (माता यथा) माता जैसे (पुत्रम्) पुत्र को (सिचा) आञ्चल से आच्छादित करती है, वैसे तू जीवित प्राणिवर्ग को निज भेंटों द्वारा आच्छादित कर।
टिप्पणी -
[पृथिवी में समुन्नति प्राणिवर्ग के द्वारा होती है। कृषि, उद्यान, सड़कें, यातायात के साधन, विविध प्रकार के मकान, व्यापार, डाक का आना-जाना, रेलें, तार, हवाईजहाज, नहरें आदि के कारण पृथिवी समुन्नत होती है। इस समुन्नति में प्राणिवर्ग ही कारण है। इस समुन्नति में विघ्न-बाधा के कारण हैं – अतिवर्षा और उसके द्वारा जलप्रवाह, अवर्षा और उसके द्वारा कृषि विनाश, भूचाल, आग्नेय पर्वतों का फटाव आदि। सूपायना= सु + उपायन (भेटें)। यह पृथिवी सोना, लोहा, तैल, अन्न, फल-फूल, विविध औषधियां, स्वच्छ जल, प्राणवायु आदि की भेंटें प्राणिवर्ग को दे रही हैं। सूपसर्पणा = सड़कों का निर्माण, तथा जङ्गलों को काटना– आदि द्वारा पृथिवी आसानी से विचरने योग्य हो जाती है। यह पृथिवी उपर्युक्त भेंटों द्वारा प्राणिवर्ग को आच्छादित कर रही है। अभ्यूर्णहि = अभि (सब प्रकार से) + ऊर्णुहि, ऊर्णुञ् आच्छादने। उच्छ्वञ्चस्व = उत् (उद्) + श्वचि (गतौ)।]