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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
    सूक्त - अग्नि देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    यं त्वम॑ग्नेस॒मद॑ह॒स्तमु॒ निर्वा॑पया॒ पुनः॑। क्याम्बू॒रत्र॑ रोहतु शाण्डदू॒र्वा व्यल्कशा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽअद॑ह: । तम् । ऊं॒ इति॑ । नि: । वा॒प॒य॒ । पुन॑: । क्याम्बू॑: । अत्र॑ । रो॒ह॒तु॒ । शा॒ण्ड॒ऽदू॒र्वा । विऽअ॑ल्कशा ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं त्वमग्नेसमदहस्तमु निर्वापया पुनः। क्याम्बूरत्र रोहतु शाण्डदूर्वा व्यल्कशा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । त्वम् । अग्ने । सम्ऽअदह: । तम् । ऊं इति । नि: । वापय । पुन: । क्याम्बू: । अत्र । रोहतु । शाण्डऽदूर्वा । विऽअल्कशा ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 6

    भाषार्थ -
    (अग्ने) हे अग्नि ! (त्वम्) तू ने (यम्) श्मशान के जिस भूभाग को (समदहः) जलाया है, (निर् वापय पुनः तम् उ) उस भूभाग से निकल कर उसे फिर बोने योग्य कर दे। (अत्र) इस श्मशान में या भूभाग में (क्याम्बूः) काई-जल (रोहतु) प्रादुर्भूत हो, (शाण्डदूर्वा) सन तथा दूब घास, तथा (व्यल्कशा) भूमि को विविध प्रकार से अलंकृत करनेवाली और पृथिवी पर मानो शयन करनेवाली, बिछी हुई घास प्रादुर्भूत हो।

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