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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 29
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - विराट् जगती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
ध॒र्ता ह॑ त्वाध॒रुणो॑ धारयाता ऊ॒र्ध्वं भा॒नुं स॑वि॒ता द्यामि॑वो॒परि॑। लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ ॥
स्वर सहित पद पाठध॒र्ता । ह॒ । त्वा॒ । ध॒रुण॑: । धा॒र॒या॒तै॒ । ऊ॒र्ध्वम् । भा॒नुम् । स॒वि॒ता । द्याम्ऽइ॒व । उ॒परि॑ । लो॒क॒ऽकृत॑: । प॒थि॒ऽकृत॑: । य॒जा॒म॒हे॒ । ये । दे॒वाना॑म् । हु॒तऽभा॑गा: । इ॒ह । स्थ ॥३.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
धर्ता ह त्वाधरुणो धारयाता ऊर्ध्वं भानुं सविता द्यामिवोपरि। लोककृतः पथिकृतोयजामहे ये देवानां हुतभागा इह स्थ ॥
स्वर रहित पद पाठधर्ता । ह । त्वा । धरुण: । धारयातै । ऊर्ध्वम् । भानुम् । सविता । द्याम्ऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 29
भाषार्थ -
(धर्ता) सब का धारण करने वाला (धरुणः) सर्वाधार परमेश्वर (त्वा) तेरा (ऊर्ध्वम्) ऊपर के लोकों में (धारयातै) धारण करे। (सविता) सर्वोत्पादक तथा सर्वप्रेरक परमेश्वर (इव) जैसे (भानुम्) सूर्य का तथा (द्याम्) द्युलोक का (उपरि) ऊपर में धारण कर रहा है। 'लोककृतः'– आदि पूर्ववत् (२५)।
टिप्पणी -
[मन्त्र २५ से २८ में "मा" द्वारा मृतव्यक्ति का सम्बन्धी चारों दिशाओं से अपनी रक्षा की प्रार्थना परमेश्वर से करता है। और मन्त्र १५० में "त्वा" द्वारा मृतव्यक्ति की ऊपर के लोकों में धारण की प्रार्थना करता हैं। मृतव्यक्ति पार्थिव सम्बन्ध से छूट कर ऊपर के लोकों में जाता है, और रहता है, जब तक कि उस का पुनर्जन्म नहीं होता।]