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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 42
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
त्वम॑ग्न ईडि॒तोजा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वा। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ तेअ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । ई॒डि॒त: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । अवा॑ट् । ह॒व्यानि॑ । सु॒र॒भीणि॑ । कृ॒त्वा। प्र । अ॒दा॒: । पि॒तृऽभ्य॑:। स्व॒धया॑ । ते । अ॒क्ष॒न् । अ॒द्धि । त्वम् । दे॒व॒ । प्रऽय॑ता । ह॒वींषि॑ ॥३.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्न ईडितोजातवेदोऽवाड्ढव्यानि सुरभीणि कृत्वा। प्रादाः पितृभ्यः स्वधया तेअक्षन्नद्धि त्वं देव प्रयता हवींषि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । अग्ने । ईडित: । जातऽवेद: । अवाट् । हव्यानि । सुरभीणि । कृत्वा। प्र । अदा: । पितृऽभ्य:। स्वधया । ते । अक्षन् । अद्धि । त्वम् । देव । प्रऽयता । हवींषि ॥३.४२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 42
भाषार्थ -
(जातवेदः) हे वेदविद्या के कारण द्विजन्मा बने (अग्ने) ज्ञानी सद्-गृहस्थ! (ईडितः) वैदिक स्तुतियों से सम्पन्न (त्वम्) तू, (हव्यानि) भोज्य पदार्थों को (सुरभीणि) घृतादि द्वारा सुरभित सुगन्धित (कृत्वा) करके (अवाट्) लाया है। और उन भोज्य पदार्थों को (पितृभ्यः) पितरों अर्थात् पिता, पितामह माता आदि बुजुर्गों को (प्रादाः) तूने दिया है। और (प्रयता) दिये गए (हवींषि) हविरूप इन अन्नों को (स्वधया) अपने धारण और पोषण की दृष्टि से (ते) उन्हों ने (अक्षन्) खाया है। हे (देव) दिव्यगुणी सद्गृहस्थ! पितरों के खा चुकने के पश्चात् (त्वम्) तू स्वयं (अद्धि) उन भोजनों को खाया कर।
टिप्पणी -
[पितरों का भोजन करना सूचित करता है कि ये पितर जीवित हैं, मृत नहीं। अतिथिसेवा के पश्चात् सद्गृहस्थ स्वयं अन्न ग्रहण करे, – यह वैदिक आज्ञा है। यथा “अशितावत्यतिथावश्नीयाद्यज्ञस्य सात्मत्वाय। यज्ञस्याविच्छेदाय तद्व्रतम् ॥” (अथर्व० ९।६।३८)। यह मन्त्रार्थ महर्षि दयानन्द के भाष्य के आधार पर किया गया है (यजु० १९।६६)। ईडितः= ईड + इतच्। यथा “तारकितं नभः"।]