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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 71
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - उपरिष्टात् बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
आ र॑भस्वजातवेद॒स्तेज॑स्व॒द्धरो॑ अस्तु ते। शरी॑रमस्य॒ सं द॒हाथै॑नं धेहि सु॒कृता॑मुलो॒के ॥
स्वर सहित पद पाठआ । र॒भ॒स्व॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । तेज॑स्वत् । हर॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ । शरी॑रम् । अ॒स्य॒ । सम् । द॒ह॒ । अथ॑ । ए॒न॒म् । धे॒हि । सु॒ऽकृता॑म् । ऊं॒ इति॑ । लो॒के ॥३.७१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रभस्वजातवेदस्तेजस्वद्धरो अस्तु ते। शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामुलोके ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रभस्व । जातऽवेद: । तेजस्वत् । हर: । अस्तु । ते । शरीरम् । अस्य । सम् । दह । अथ । एनम् । धेहि । सुऽकृताम् । ऊं इति । लोके ॥३.७१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 71
भाषार्थ -
(जातवेदः) हे विद्यसम्पन्न आचार्य ! (आ रभस्व) इस ब्रह्मचारी की शिक्षा दीक्षा आरम्भ कीजिये। (ते) आप का (तेजस्वत्) तेजस्वी (हरः) पापहारी स्वरूप, इस ब्रह्मचारी के लिये (अस्तु) प्रकट हो। (अस्य) इस ब्रह्मचारी के (शरीरम्) शरीर को (सम्) सम्यक् प्रकार से (दह) तपश्चर्या की अग्नि द्वारा दग्ध करके निर्मल कीजिये, सत्कर्मी बनाइये। (अथ) तदनन्तर इसे (सुकृताम्) सुकर्मियों के (लोके) गृहस्थ-लोक में (धेहि) स्थापित कीजिये।
टिप्पणी -
[आचार्य ऐसा होना चाहिये कि वह अपने पापहारी-तेज द्वारा ब्रह्मचारी की पापमयी वासनाओं को दग्ध कर उसे सुकर्मी बना सके। वेद का यह भी उपदेश है कि ब्रह्मचर्य की समाप्ति पर आचार्य से ब्रह्मचारी के आचार-विचार के सम्बन्ध में परामर्श लेकर ब्रह्मचारी का गृहस्थ धर्म में प्रवेश होना चाहिये। गृहस्थ सुकर्मियों के लिये है, दुष्कर्मियों के लिये नहीं। संदह= तप द्वारा तथा प्राणयाम आदि योगोपायों द्वारा ब्रह्मचारी के शारीरिक मानसिक आध्यात्मिक मलों का संशोधन करना चाहिये। ऋग्वेद में कहा है कि = "अतप्ततनूर्न तदामो अशुते" (ऋक् ९।८३। १)। अर्थात् जिस ने तपश्चर्या की अग्नि द्वारा अपनी तनू नहीं तपाई, वह कच्चा है, परिपक्व नहीं। ऐसा व्यक्ति उस ब्रह्म को प्राप्त नहीं कर सकता। यथा- दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥ मनु० ६।७१॥ अर्थात् अग्नि के संयोग से जैसे धातुओं के मल दग्ध हो जाते हैं, वैसे प्राणायाम की अग्नि से इन्द्रियों के दोष दग्ध हो जाते हैं। "सं दह" शब्द का यही अभिप्राय है। मन्त्र में शवाग्नि का वर्णन नहीं, अपितु तपश्चर्याग्नि तथा प्राणायामाग्नि का वर्णन है।]