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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 56
पय॑स्वती॒रोष॑धयः॒ पय॑स्वन्माम॒कं पयः॑। अ॒पां पय॑सो॒ यत्पय॒स्तेन॑ मा स॒हशु॑म्भतु ॥
स्वर सहित पद पाठपय॑स्वती: । ओष॑धय: । पय॑स्वत् । मा॒म॒कम् । पय॑: । अ॒पाम् । पय॑स: । यत् । पय॑: । तेन॑ । मा॒ । स॒ह । शु॒म्भ॒तु॒ ॥३.५६॥
स्वर रहित मन्त्र
पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं पयः। अपां पयसो यत्पयस्तेन मा सहशुम्भतु ॥
स्वर रहित पद पाठपयस्वती: । ओषधय: । पयस्वत् । मामकम् । पय: । अपाम् । पयस: । यत् । पय: । तेन । मा । सह । शुम्भतु ॥३.५६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 56
भाषार्थ -
(ओषधयः) ओषधियां (पयस्वतीः) रसरूप-सार वाली है, (मामकम्) मेरा (पयः) रस-रक्त (पयस्वत्) सारवाला है, (अपाम्) जलों के (पयसः) सार का (यत्) जो (पयः) सार है, (तेन) उन तीनों प्रकार के सारों के (सह) साथ परमेश्वरीय कृपा (मा) मुझे शुद्ध कर के (शुम्भतु) शोभायुक्त करे।
टिप्पणी -
[ओषधियों का सार अर्थात् रस शरीर के रस-रक्त रूपी सार को शुद्ध करता है। और शुद्ध हुए रस-रक्त का सार शारीरिक और मस्तिष्क के अंग-प्रत्यंगो को शुद्ध करता है। यह आभ्यन्तर शुद्धि है। भूमिष्ठ जलों का सार है – मेघीय जल और मेघीय जल का सार है-वर्षाजल। वर्षाजल सब प्रकार के जलों में अन्यन्त विशुद्ध होता है। इस वर्षाजल द्वारा शरीर की बाह्यशुद्धि और पीने के द्वारा शरीर की आभ्यन्तर शुद्धि होती है। शरीर की आभ्यन्तर और बाह्यशुद्धि के द्वारा, तथा जलचिकित्सा और औषधिरसों के पान द्वारा सर्प आदि के विष का अपहरण होता है। शरीर का शुद्ध रस-रक्त स्वयं भी ओषधिरूप है।]