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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    परि॑ त्वा धात्सवि॒ता दे॒वो अ॒ग्निर्वर्च॑सा मि॒त्रावरु॑णाव॒भि त्वा॑। सर्वा॒ अरा॑तीरव॒क्राम॒न्नेही॒दं रा॒ष्ट्रम॑करः सु॒नृता॑वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । त्वा॒ । धा॒त् । स॒वि॒ता । दे॒व: । अ॒ग्नि: । वर्च॑सा । मि॒त्रावरु॑णौ । अ॒भि । त्वा॒ । सर्वा॑: । अरा॑ती: । अ॒व॒ऽक्राम॑न् । आ । इ॒हि॒। इ॒दम् । रा॒ष्ट्रम् । अ॒क॒र॒: । सू॒नृता॑ऽवत् ॥१.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि त्वा धात्सविता देवो अग्निर्वर्चसा मित्रावरुणावभि त्वा। सर्वा अरातीरवक्रामन्नेहीदं राष्ट्रमकरः सुनृतावत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । त्वा । धात् । सविता । देव: । अग्नि: । वर्चसा । मित्रावरुणौ । अभि । त्वा । सर्वा: । अराती: । अवऽक्रामन् । आ । इहि। इदम् । राष्ट्रम् । अकर: । सूनृताऽवत् ॥१.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (सविता) प्रेरक, (देवः) प्रकाशमान (अग्निः) अग्नि [सूर्य्य आदि] ने (वर्चसा) तेज के साथ [वर्त्तमान] (त्वा) तुझको (परि) सब ओर से (धात्) धारण किया है और (मित्रावरुणौ) प्राण और अपान वायु ने (त्वा) तुझको (अभि) सब ओर से [धारण किया है]। [हे सेनापते राजन् !] (सर्वाः) सब (अरातीः) वैरी दलों को (अवक्रामन्) लतियाता हुआ तू (आ इहि)(इदम् राष्ट्रम्) इस राज्य को तूने (सूनृतावत्) सुन्दर नीतियुक्त (अकरः) बनाया है ॥२०॥

    भावार्थ - जिस प्रकार परमेश्वर सब अग्नि, सूर्य्य, वायु आदि पदार्थों को वश में करके सृष्टि का राज्य करता है, इसी प्रकार मनुष्य जितेन्द्रिय होकर विघ्नों को हटा कर आनन्द करे ॥२०॥

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