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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 57
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    यो मा॑भिच्छा॒यम॒त्येषि॒ मां चा॒ग्निं चा॑न्त॒रा। तस्य॑ वृश्चामि ते॒ मूलं॒ न च्छा॒यां क॑र॒वोऽप॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । मा॒ । अ॒भि॒ऽछा॒यम् । अ॒त‍ि॒ऽएषि॑: । माम् । च॒ । अ॒ग्निम् । च॒ । अ॒न्त॒रा । तस्य॑ । वृ॒श्चा॒मि । ते॒ । मूल॑म् । न । छा॒याम् । क॒र॒व॒: । अप॑रम् ॥१.५७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो माभिच्छायमत्येषि मां चाग्निं चान्तरा। तस्य वृश्चामि ते मूलं न च्छायां करवोऽपरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । मा । अभिऽछायम् । अत‍िऽएषि: । माम् । च । अग्निम् । च । अन्तरा । तस्य । वृश्चामि । ते । मूलम् । न । छायाम् । करव: । अपरम् ॥१.५७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 57

    पदार्थ -
    (यः) जो तू (माम्) मेरे (च च) और (अग्निम् अन्तरा) अग्नि [अग्निसमान ज्ञानप्रकाश] के बीच [होकर] (अभिच्छायम् मा) मुझ तेज पाये हुए को (अत्येषि) उलाँघता है। (तस्य ते) उस तेरी (मूलम्) जड़ को (वृश्चामि) मैं काटता हूँ, तू (छायाम्) छाया [अन्धकार वा अविद्या] को (अपरम्) फिर (न)(करवः) फैलावे ॥५७॥

    भावार्थ - जैसे जलते हुए अग्नि का प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है और कोई दोनों के बीच में पड़ कर प्रकाश को रोक दे, ऐसे ही जो दुराचारी वेदविद्या और ब्रह्मचारी के बीच विघ्न डालकर उत्तम व्यवहार के प्रचारों को रोके, उसे लोग दण्ड देकर नाश करें ॥५७॥

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