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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 1/ मन्त्र 45
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अध्यात्मम्, रोहितः, आदित्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    सूर्यो॒ द्यां सूर्यः॑ पृथि॒वीं सूर्य॒ आपोऽति॑ पश्यति। सूर्यो॑ भू॒तस्यैकं॒ चक्षु॒रा रु॑रोह॒ दिवं॑ म॒हीम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑: । द्याम् । सूर्य॑: । पृ॒थि॒वीम् । सूर्य॑: । आप॑: । अति॑ । प॒श्य॒ति॒ । सूर्य॑: । भू॒तस्य॑ । एक॑म् । चक्षु॑: । आ । रु॒रो॒ह॒ । दिव॑म् । म॒हीम् ॥१.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यो द्यां सूर्यः पृथिवीं सूर्य आपोऽति पश्यति। सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुरा रुरोह दिवं महीम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्य: । द्याम् । सूर्य: । पृथिवीम् । सूर्य: । आप: । अति । पश्यति । सूर्य: । भूतस्य । एकम् । चक्षु: । आ । रुरोह । दिवम् । महीम् ॥१.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 1; मन्त्र » 45

    पदार्थ -
    (सूर्यः) सबका चलानेवाला [परमेश्वर] (द्याम्) प्रकाशमान सूर्य को, (सूर्यः) वह सर्वप्रेरक (पृथिवीम्) पृथिवी को, (सूर्यः) वह सर्वनियामक (आपः) प्रत्येक काम को (अति पश्यति) निहारता है। (सूर्यः) वह सर्वनियन्ता (भूतस्य) संसार का (एकम्) एक (चक्षुः) नेत्र [नेत्ररूप जगदीश्वर] (दिवम्) आकाश पर और (महीम्) पृथिवी पर (आ रुरोह) ऊँचा हुआ है ॥४५॥

    भावार्थ - वह समदर्शी जगदीश्वर सब संसार और सब कामों को देखता हुआ सबको अपने नियम में रखता है ॥४५॥

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